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अक्षर
रसशास्त्र के विकास में जैनाचार्यो का योगदान
अञ्जु श्रीवास्तव, डॉ० चन्द्रभूषण झा* *
आयुर्वेद शब्द आयु और वेद इन दो शब्दों से मिलकर बना है। यज्ञ पुरुष से प्रकट होने वाले चतुर्वेदों से आयुर्वेद पाँचवाँ उपवेद बना। आयुर्वेद चारों वेदों का उपवेद है, ऐसा महर्षि काश्यप का मत है।
आयुर्वेद के आठ अंगों में से एक अंग रसायन है। रसायन का ही विकास रसशास्त्र के रूप में हुआ। इसके विकास का प्रारम्भिक काल ८वीं - ९वीं शती माना जाता है। १.६ वीं शताब्दी में यह पूर्ण विकसित अवस्था में था । रसशास्त्र या रसविद्या के आचार्यों को सामान्यतः शैव या शैव सम्प्रदाय के अनुयायी के रूप में जाना जाता है। अधिकांश रसग्रन्थों में जो मंगलाचरण मिलता है उसमें शिव और पार्वती को ही नमस्कार किए जाने का उल्लेख है। रसशास्त्र के विकास में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों जैसे- जैन, बौद्ध, शैव और नाथ सम्प्रदायों का अमूल्य योगदान रहा है ।
एवमेवायमृग्वेद यजुर्वेद सामवेदाथर्ववैदम्य: पञ्चमों भवत्यायुर्वेदः । । (काश्यपसंहिता, विमान स्थान - १ ) १
जैन आगम साहित्य में चिकित्सा विज्ञान को 'प्राणावाय' कहते हैं। अहिंसावादी जैन आचार्यों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही शल्य चिकित्सा का निषेध किया और उन्होंने रसयोगों (पारद से निर्मित धातुयुक्त व भस्मों) और सिद्धयोगों का बाहुल्येन उपयोग करना प्रारम्भ किया । २ अतः रसौषधि रसशास्त्र में विभिन्न जैन आचार्यों का योगदान अविस्मरणीय है। आज अनेक जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत उनके बहुमूल्य ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है। वर्तमान काल में जैन प्राणावाय परम्परा का एक मात्र ग्रन्थ उग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक प्राप्त होता है। जैन प्राणावाय के अनेक दुर्लभ ग्रन्थ पाण्डुलिपि के रूप में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि
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शोधछात्रा (पी-एच्०डी० स्कालर), चिकित्सा विज्ञान संस्थान, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी.
रीडर, रसशास्त्र विभाग, चिकित्सा विज्ञान संस्थान, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी.
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