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अंजना की गौरव गाथा भी जैन- परम्परा में बहुत प्रसिद्ध है। पिता महेन्द्र ने उसका सम्बन्ध पवनंजय के साथ तय कर दिया। पवनंजय अंजना के सौन्दर्य से आकर्षित होकर विवाह के पूर्व ही अपने मित्र प्रहसित को लेकर अंजना के महल पहुंच गया। यहाँ उसे गलतफहमी हो गयी कि अंजना किसी और पर मोहित है। फलतः पवनंजय ने विवाह होने पर उसका तिरस्कार किया। युद्ध यात्रा के दौरान चकवे चकवी के विरह को देखकर उसे अंजना की याद आयी और राजप्रासाद पहुंचकर उसके साथ सहवास किया तथा नामांकित मुद्रिका दी। गर्भवती हो जाने पर अंजना को अनेक विपत्तियाँ उठानी पड़ी, जो उसके अशुभ कर्मों का फल था। गर्भकाल पूर्ण होने पर अंजना ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम हनुमान रखा गया। किसी तरह पवनंजय की भेंट अंजना और हनुमान से हो सकी।
इसी प्रकार दमयन्ती, मयणा सुन्दरी, मदनसेना, तिलकसुन्दरी, मदनरेखा, गुणसुन्दरी आदि अनेक महिलाएँ हुई हैं जिन्होंने जैनधर्म की पताका अपने विशुद्ध चरित्र और व्यवहार से फहराई है।
प्रागैतिहासिक इन महिलाओं के जीवन वृत्तान्त का अध्ययन करने पर यह तथ्य बड़ा स्पष्ट हो जाता है कि ये महिलाएँ आध्यात्मिक क्षेत्र में अधिक रची- पची थीं। सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में साधुओं की संख्या की अपेक्षा साध्वियों की संख्या का अधिक होना भी इस स्थिति का द्योतक है कि प्राचीनकाल में भी महिलाएँ अध्यात्म क्षेत्र में अधिक बढ़ी चढ़ी थीं। आज भी वही स्थिति हम पाते हैं। इसी के साथ ही वे नीतिनिपुण और व्यवहारकुशल थीं, करुणा और वात्सल्य की मूर्ति थी । आत्मजागरण, सामाजिक विकास और राष्ट्र के उत्थान में उन्होंने अपना सतत् योगदान दिया है।
यह हमारे महिला वर्ग का गौरव का विषय है कि उसे इस प्रकार की चरित्रनिष्ठ महिलाओं का आदर्श थाती के रूप में प्राप्त हुआ है। अब यह हमारा कर्तव्य है कि हम उसे पूरी तरह सहेजें और समाज तथा राष्ट्र के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दें।
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