Book Title: Sramana 2001 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ १८ पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तक की कथावस्तु में गर्भ-सन्धि की योजना है। इस सन्धि में फल छिपा हुआ है और 'प्रत्याशा-पताका' का योग भी वर्तमान है। कुमार की दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुता का त्याग नियताप्ति है। दिग्विजय के कारण प्रतिपक्षियों का उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदय के साधनों के सद्भाव के कारण आत्म कल्याण के साधनों का विरलत्व, जिनालय निर्माण और जिनप्रतिबिम्ब प्रतिष्ठा के सम्पत्र होने पर भी निर्वाणरूप फल प्राप्ति की असन्निकटता फल प्राप्ति में अवरोधक है। अतएव इस स्थिति को "विमर्श सन्धि' की स्थिति कहा जा सकता है। वराङ्ग का विरक्त होकर तपश्चरण करना और सद्गतिलाभ 'निर्वहण सन्धि' है। सामान्यत: प्रस्तुत काव्य में सन्धि संघटना सन्निहित है। (४) आचार्य दण्डी ११ के अनुसार महाकाव्य में त्रिविधात्मक मङ्गलाचरणनमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक और वस्तुनिर्देशात्मक होना चाहिए। वराङ्गचरित में इसका पूर्णरूपेण पालन किया गया है। अर्हत्-केवली के धर्म के रूप में नमस्कारात्मक तथा आशीर्वादात्मक मङ्गलाचरण प्रस्तुत किया गया है। जिनधर्म- सम्मत आदर्शचरित की सङ्कल्पना के निर्देश के रूप में वस्तु निर्देशात्मक मङ्गलाचरण भी विद्यमान है। १२ (५) काव्यशास्त्रियों के अनुसार महाकाव्य में शृङ्गार, वीर और शान्त रस में से एक रस मुख्य तथा शेष रस गौण रूप से अभिव्यक्त होने चाहिए। १३ वराङ्गचरित में शान्तरस की योजना मुख्य रूप से की गयी है तथा अन्य रसों की योजना इसके पोषक के रूप में हुई है। (६) महाकाव्य के शीर्षक के सम्बन्ध में भामह तथा दण्डी दोनों मौन हैं। आचार्य विश्वनाथ१४ के अभिमत में महाकाव्यत्त्व का शीर्षक कथानक, मुख्य घटना, अथवा किसी पात्र के आधार पर रखा जाना चाहिए। प्रस्तुत महाकाव्य का नामकरण वराङ्गचरित काव्य के नायक वराङ्ग के आधार पर किया गया है। (७) आचार्य दण्डी१५ ने छन्द के विषय में बताया है कि सर्ग में प्रयुक्त छन्द से भित्र सर्गान्त में प्रयुक्त होना चाहिए। वराङ्गचरित में भी सर्ग में प्रयुक्त छन्द से भित्र छन्द का प्रयोग सर्गान्त में किया गया है। इस परम्परा का पालन सम्पूर्ण कृति में दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ- प्रस्तुत काव्य के प्रथम सर्ग में १-६८ श्लोक वसन्ततिलका छन्द तथा सर्गान्त के दो श्लोक ६९-७० में पुष्पिताग्र छन्द प्रयुक्त है। (८) महाकाव्य के नायक के विषय में आचार्य विश्वनाथ१६ का मत है कि महाकाव्य का नायक कोई देवता, उच्च वंशोत्पत्र क्षत्रिय तथा एक वंशोत्पन्न कई राजा हो सकते हैं। प्रस्तुत काव्य का नायक वराङ्ग उच्चकुलीन क्षत्रिय भोजकुल नामक वंश में उत्पन्न है। (९) आचार्य धनञ्जय१७ के अभिमत में प्रतिनायक लोभी, धीरोद्धत, घमण्डी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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