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पर्यावरणचिन्तन जैन वाङमय के सन्दर्भ में
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डॉ० संगीता मेहता
पर्यावरण शब्द 'वातावरण' का पर्याय है। यह पर्यावरण अपने में अत्यन्त व्यापक अर्थ समाहित किये हुए है। इसे दो दृष्टियों से देखा जा सकता है- भौतिक पर्यावरण एवं आध्यात्मिक पर्यावरण। जीव मात्र को दैहिक संतुष्टि प्रदान करने वाले भूमि, जल, वायु एवं वनस्पति आदि तत्त्व भौतिक पर्यावरण में समाविष्ट हैं और आत्म-संतुष्टि, आध्यात्मिक पर्यावरण की परिणति है। आत्म-संतुष्टि से न केवल आध्यात्मिक पर्यावरण अपितु भौतिक पर्यावरण भी शुद्ध होता है। हमारे आचार अर्थात् क्रिया व्यवहार का प्रत्यक्ष प्रभाव भौतिक पर्यावरण पर होता है और विचार तथा चिन्तन से आध्यात्मिक पर्यावरण प्रभावित होता है। संक्षेप में जीव सृष्टि एवं वातावरण का परस्पर सम्बन्ध ही पर्यावरण है, इनके सन्तुलन से ही पर्यावरण शुद्ध रहता है। पर्यावरण शुद्धि न केवल सभ्यता एवं संस्कृति की प्रतीक होती है वरन् हमारे शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक आदि सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक होती है।
भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति भारतीय ऋषि, मनीषी अत्यन्त प्राचीन काल से सजग थे। पर्यावरण रक्षण के प्रति उनकी चेतना प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समग्र भारतीय वाङ्मय में परिलक्षित होती है।
प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति दो समानान्तर धाराओं में प्रवाहित हुई- वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति।
__ वैदिक संस्कृति का निदर्शन वैदिक वाङ्मय में होता है। वैदिक वाङ्मय के ही नहीं अपितु विश्व वाङ्मय के प्रथम सोपान ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में उद्गाता ऋषि ने अग्नि में स्थित ऊर्जा और जीवन की पहचान कर सर्वप्रथम उसकी स्तुति की। इन्द्र, वरुण, पर्जन्य, सूर्य आदि सभी प्राकृतिक तत्त्वों में देवत्व का आधान किया। पर्यावरण रचना में वैदिक ऋषियों का चिन्तन है कि सृष्टि की उत्पत्ति पञ्चमहाभूतों से हुई। सृष्टिक्रम में सर्वप्रथम उत्पत्ति आकाश की हुई। आकाश तत्त्व से वायु और फिर अग्नि की उत्पत्ति हुई जिसे परम पवित्र तथा सर्वव्यापी माना गया। अग्नि घनीभूत होकर जल बनी तथा जल घनीभूत होकर पृथ्वी के रूप में परिणत हुआ।२
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सहायक प्राध्यापक, संस्कृत, शा. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर. .
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