________________
४४
के मध्य जालोर के जैन धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र होने की जानकारी मिलती है। सम्भव है ढूढने पर प्राचीन ग्रन्थ भण्डारों में जालोर मण्डल के भी विज्ञप्तिपत्र मिल जाएं।
(४) तीर्थमाला- जैनों द्वारा प्राचीनकाल में तीर्थ यात्राएं आयोजित की जाती थीं। कई जैन आचार्य व्यक्तिगत तीर्थ यात्रा भी किया करते थे। इन तीर्थयात्राओं का विवरण विभिन्न तीर्थमालाओं में मिलता है। १४ वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने विविध तीर्थकल्प तथा सौभाग्यविजय जी ने तीर्थमाला की रचना की। इन से मन्दिरों के निर्माण
और उनमें प्रतिमा स्थापित किये जाने के सम्बन्ध में प्रामाणिक साक्ष्य मिलते हैं। सिद्धसेनसूरि ने सकलतीर्थस्तोत्र में जालोर का जैन तीर्थ के रूप में वन्दन किया है।
(५) चित्रित पाण्डुलिपियाँ- जालोर में अनेक जैन आचार्यों ने चातुर्मास किया। अपने प्रवास के समय उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों की रचना की। जालोर मण्डल से हमें कुछ ऐसे हस्तलिखित ग्रन्थ मिले हैं जो सचित्र हैं। जालोर से कल्पसूत्रटीका नामक ग्रन्थ मिला है जो संवत् १५६३ में तैयार हुआ। इसमें जो चित्र दिये हुए हैं, उनके निर्माण में स्वर्ण का प्रयोग हआ है। विभिन्न रंगों से चित्रित इन चित्रों से जैन चित्रकला
शैली, उस काल की पोशाक, धार्मिक जीवन और जैन आचार्यों के चित्रमय दर्शन होते हैं। अनेक चित्रित पाण्डुलिपियाँ विभिन्न जैन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं।३९
(६) विदेशी यात्रियों का वृत्तान्त- जैन धर्म के विकास की प्रक्रिया का अध्ययन करने हेतु चीनी यात्री ह्वेनसांग का यात्रा विवरण अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में भीनमाल की यात्रा की थी।
(७) प्रशस्तियाँ- प्रशस्तियों का महत्त्व अभिलेखों के समान ही है। उनका लेखन ८-९ वीं शताब्दी ईस्वी में प्रारम्भ हुआ। इनसे हमें उनके लेखन के समय विद्यमान आचार्य, संघ, गण और गच्छों की जानकारी मिलती है। इनमें दानदाता का नाम और गोत्र भी दिया जाता था। जालोर मण्डल में प्रशस्तियों जैसे शिलालेख भी मिलते हैं। प्रशस्तियां जैन साहित्य एवं इतिहास की कड़ियां जोड़ने का अत्यन्त उपयोगी साधन हैं।४०
(८) पत्र एवं पत्रावलियां--प्राचीन हस्तलिखित पत्र एवं पत्रावलियां जैन धर्म के इतिहास को जानने का प्रामाणिक स्रोत हैं। जैन आचार्य अपने शिष्यों, मित्रों और शासकों से पत्र व्यवहार करते रहते थे। इन पत्रों के संकलन जैन शास्त्र भण्डारों में ढूंढे जा सकते हैं। इन पत्रावलियों में शासकों द्वारा आचार्यों को समर्पित भूभाग के विवरण मिलते हैं। मध्यकाल में शासकों तथा अधिकारियों से पत्र व्यवहार करना जैन आचार्यों की सामान्य दिनचर्या का अंग था। जालोर क्षेत्र की ऐसी पत्रावलियों को ढूंढना अभी शोध का विषय है।४१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org