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भैंस, बैल, घोड़ा आदि पशुओं का कृषि,१५ व्यवसाय१६ एवं युद्धादि १७ में योगदान वर्णित है। साथ ही पशु-पक्षियों के दुर्व्यवहार की निन्दा १८ तथा उनके वध के प्रति ग्लानि और बलि का विरोध भी वर्णित है। अत्यन्त खेद का विषय है कि क्रूर मानवता ने पशु-पक्षियों की अनेक जाति-प्रजातियों को नष्ट कर दिया है। माँसाहार की प्रवृत्ति ने जलवायु एवं स्वास्थ्य को प्रदूषित किया है।
प्राणी और वनस्पति जगत् का संरक्षण अहिंसा से ही सम्भव है। जैनाचार में अहिंसा का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। मन, वचन और कर्म से किसी जीव की हिंसा न करना अहिंसा है। अन्त:करण में रागादि विकारों का उत्पन्न न होना अहिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में हिंसा की अतिविस्तृत व्याख्या की है। असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहादि पापों को हिंसा का ही रूप बताया।२° मद्य, माँस, मधु और पञ्चउदुम्बर फलों का भक्षण भी हिंसा की परिणति है। २१
अशुद्ध जल का प्रयोग एवं अनावश्यक जल का प्रवाह भी अनन्त जल कायिक जीवों की हिंसा है। जल का उपयोग छानकर एवं उबालकर करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है। २४ किशन सिंह के क्रियाकोश में जल शुद्धि की तकनीक का विस्तृत वर्णन है। जल शुद्धि की जैन विधि से चिकित्सा विज्ञान भी सहमत है। आज भूमि जल और वायु प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण दूषित पदार्थों को प्रवाहित करना, स्थान-स्थान पर एकत्रित जल और दलदल आदि हैं। जैन विधि से की गई जल शुद्धि एवं मितव्ययिता से जलप्रदूषण से मुक्ति सम्भव है।
नित्य स्तुत आलोचना पाठ में मानवीय प्रमाद की सटीक आलोचना है। जिसमें नदी के बीच जल में वस्त्र धोना, भूमि खोदना या खुदवाना। जल की जीवानी को यथा स्थान न पहुँचाना; पंखे से वायु तीव्र गति से संचालित करना, बिना देखे अग्नि प्रज्वलित करना आदि से जल, भूमि, वायु और पृथ्वीकायिक जीवों हिंसा की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराया है।
__ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच अणव्रत हैं जो भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण की शद्धि में सार्थक हैं। अहिंसा और सत्य अन्योन्याश्रित हैं। मनुष्य को हित, मित, प्रिय और हिंसारहित वचन बोलना चाहिये। वाणी की सत्यता
और वाणी के संयम को जीवन में उतारने के लिये इसे सत्याणुव्रत, सत्यमहाव्रत, भाषा समिति और वचनगुप्ति इन चार स्थानों पर नियोजित किया है। सत्य वाणी तक ही सीमित नहीं है वरन् मङ्गलायतन में सत्य को ईश्वर कहा है।२६ पदार्थ में भी सत् का अस्तित्व है। झूठा उपदेश देना, किसी की गुप्त क्रिया को प्रकट करना या चुगली करना, अभिप्राय जानकर प्रकट करना, झूठे लेख लिखना, जाली दस्तावेज बनाना, धरोहर को न लौटाना आदि सत्याणुव्रत के अतिचार या दोष हैं। २७
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