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डॉ० सोहन कृष्ण पुरोहित
प्राचीन काल में जालोर मरु-प्रदेश का एक प्रमुख अंग था। तत्पश्चात् सम्राट हर्षवर्द्धन के समय जालोर-भीनमाल के प्रभाव क्षेत्र में सम्मिलित हो गया। राजपूत काल में जालोर सांस्कृतिक गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया। सांचोर, रत्नपुर आदि पड़ोसी नगर भी धीरे-धीरे जालोर तथा भीनमाल से सांस्कृतिक प्रेरणा प्राप्त करने लगे
और इस प्रकार इन सभी नगरों में सांस्कृतिक उन्नति समान रूप से परिलक्षित होने लगी। मध्यकाल में भी यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से अग्रणी रहा। अध्ययन की सुविधा के लिए इस सांस्कृतिक भू-भाग को जालोर-मण्डल के नाम से अभिहित किया जा सकता है।
जालोर-जोधपुर से करीब १२१ कि.मी. दक्षिण में स्थित है। प्राचीनकाल में इसे सुवर्णगिरि और जाबालिपुर कह कर पुकारा जाता था। कुवलयमाला के अनुसार आठवीं शताब्दी में यह एक समृद्धिशाली नगर था। यहां के भवन एवं मन्दिर इस नगर की शोभा बढ़ाते थे। प्रतिहारों के पश्चात् जालोर में परमारों तथा सोनगरा चौहानों ने शासन किया। यहां पुरातात्विक महत्व के भवनों में सुवर्णगढ़ दुर्ग एवं तोपखाना प्रमुख हैं। तोपखाना का निर्माण अलाउद्दीन खिलजी ने मन्दिरों को तोड़कर उनकी स्थापत्य सामग्री से करवाया था।२
जालोर पर प्रारम्भ में प्रतिहारों और फिर परमारों का शासन रहा। परमार मुञ्जने यहाँ पर चन्दन को अपना गवर्नर नियुक्त किया था। परवर्ती काल में परमार गुजरात के चौलुक्यों के सामन्त बन गये। ११६४ ई० में कुमारपाल चौलुक्य ने जालोर को अपने राज्य का अंग बना लिया। उसने यहां पर कुँवर-विहार नामक जैन मन्दिर बनवाया। चौलुक्यों के पश्चात् जालोर पर नाडोल के चाहमानवंशीय कीर्तिपाल का अधिकार हो गया। ११८१ ई० में कीर्तिपाल ने जालोर को अपनी राजधानी बनाया। उसके पश्चात् यहां समरसिंह और उदयसिंह ने शासन किया। १२२८ ई० में सुल्तान इल्तुतमिश ने जालोर के शासक उदयसिंह को कर देने हेतु बाध्य कर दिया। बाद में वह अवसर *. सह-आचार्य, इतिहास विभाग, जयनारायण व्यास, विश्वविद्यालय, जोधपुर
(राजस्थान)
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