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में एक बार बलात्कार जैसे घृणित शोषण का शिकार होना पड़ता है। विदेशों में ही नहीं वरन् भारत में भी भयङ्कर एड्स प्रभावित रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इन भयानक समस्याओं का समाधान ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से ही है, यह व्रत वैयक्तिक, सामाजिक और शारीरिक पर्यावरण की शुद्धि हेतु वरदान है।
इस तरह इन पाँच अणुव्रतों में अणुबम जैसे विस्फोटों को शान्त करने की सामर्थ्य है। आवश्यकता है अणुव्रत के प्रयोग की।
अनेकान्त जैनाचार्यों का मौलिक चिन्तन है। इस सिद्धान्त के अनुसार वस्तु अनेक विरोधी धर्मों का समूह है। जैसे दीपक में अञ्जन, बादल में बिजली और समुद्र में वाडवानल होती है।३३ एक ही वस्तु में सत् और असत् दोनों ही रूप विद्यमान होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि में आचार्य ज्ञानसागर ने शूकर का दृष्टांत३४ दिया कि शूकर के लिये विष्ठा परम भक्ष्य है किन्तु हमारे लिये अभक्ष्य है। शूकर के प्रति हमारी दृष्टि घृणित है परन्तु पर्यावरण शुद्धि में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
परमाणु में निर्माण एवं विध्वंस दोनों की सामर्थ्य है। अत: इस शक्ति का उपयोग सृजनात्मक कार्यों में करना चाहिये, सामरिक विनाश के लिये नहीं। इस तरह रेडियोधर्मी प्रदूषण से पर्यावरण की रक्षा सम्भव है। विश्व रक्षिका अनेकान्त दृष्टि को पर्यावरण के सन्दर्भ में समझना चाहिये। अनेकान्त की कथन प्रवृत्ति स्याद्वाद है। उसमें वैचारिक प्रदूषण को दूर करने की सामर्थ्य है।
श्रावक एवं श्रमण की क्रिया शुद्धि हेतु जैन वाङ्मय में आचार संहिता की विस्तृत परम्परा रही है। श्रावकाचार३५ संहिता में श्रावक की ग्यारह श्रेणियाँ हैं जिन्हें प्रतिमाएँ कहा जाता है। ये ग्यारह सोपान श्रावक को क्रमश: आत्मोत्थान के लिये प्रेरित करते हैं। सामान्यतया अष्टमूल गुण, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत श्रावक
का सर्वमान्य आचार है।३६ ये द्वादशव्रत आचरण को संयमित, आवश्यकताओं को नियन्त्रित तथा दान, शील, तप आदि भावनाओं को विकसित करने में समर्थ हैं। मद्य, माँस, मधु तथा पाँच उदुम्बर फलों का त्याग गृहस्थ के आठ मूल गुण हैं।३७ जुआ, माँस, मदिरा, वेश्या, परदाराभिलोभन, चोरी एवं शिकार ये सप्त व्यसन त्याज्य हैं।३८ इनसे चारित्र शद्धि होती है। प्रतिदिन देव पूजा, गुरुपास्ति, शास्त्र स्वाध्याय, संयमधारण, तपश्चरण और दान-श्रावक के छ: कर्त्तव्य माने गये हैं३९ जो आत्म शुद्धि में सहायक हैं।
जीवन मूल्यों में 'दान' सर्वोपरि है। आहार, औषध, शास्त्र और अभय-दान के ये चार रूप हैं। संचय का उद्देश्य दान होना चाहिये। परिग्रह संचय में दान की भावना रहने से अहंकार नहीं आता और सच्ची मानवता का विकास होता है।
श्रमणाचार संहिता में श्रमण अर्थात् मुनियों के पञ्चमहाव्रत, पाँच समितियों,
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