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पापी तथा भाग्यहीन होता है। वराङ्गचरित में प्रतिनायक के रूप में सुषेण को प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु इसकी योजना सम्पूर्ण काव्य में प्राप्त नहीं होती है।
(१०) आचार्य दण्डी१८ के अनुसार महाकाव्य के कथानक में नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतु, सूर्योदय, चन्द्रोदय, सूर्यास्त, उद्यान, जलक्रीड़ा, विवाह, संयोग, वियोग, युद्ध, मृगया आदि प्रकृति के सभी अङ्गों का वर्णन होना चाहिए। वराङ्गचरित में प्रकृति के सभी अङ्गों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन प्राप्त होता है। 'मनोरमामति विभ्रम' नामक १९वें सर्ग में उद्यान विहार, जलक्रीड़ा आदि का प्रसङ्ग दृष्टिगत होता है१९ तथा अन्य स्थलों पर नगर२०, पर्वत२१, समुद्र २२ तथा ऋतुओं२३ का चित्रण किया गया है।
(११) काव्याचार्यो२४ का मत है कि महाकाव्य के कथानक में राजदूत का वर्णन होना चाहिए। वराङ्गचरित में राजदूत का चित्रण किया गया है षोडश सर्ग में मथुराधीश ललितपुर के राजा देवसेन के पास भद्रकुलोत्पन्न हस्तिरत्न की प्राप्ति के लिए दूत को भेजा है। २५
(१२) काव्य मर्मज्ञों ने महाकाव्य के वर्णन में अलङ्कारों का यथेष्ट प्रयोग आवश्यक बतलाया है। आचार्य भामह२६ के अनुसार भाषा अग्राम्य शब्दार्थों वाली तथा अलङ्कारों से युक्त होनी चाहिए। आचार्य दण्डी२७ ने उनके मत का समर्थन किया है। वराङ्गचरित में इसका सम्यक् पालन किया गया है।
(१३) काव्यशास्त्रियों२४ के अनुसार महाकाव्य का फल चतुवर्ग-धर्म, अर्थ, काम, तथा मोक्ष में से एक होना चाहिए। वराङ्गचरित में इसकी योजना की गयी है। प्रस्तुत काव्य का नायक वराङ्ग को मोक्षप्राप्ति ही अभिप्रेत है।
(१४) काव्यविशारदों का मत है कि काव्य का अन्त स्वाभिप्रायाङ्कित, स्वनामाङ्कित, इष्टनामाङ्कित अथवा मङ्गलाङ्कित होना चाहिए। प्रस्तुत काव्य वराङ्गचरित का अन्त स्वाभिप्रायङ्कित है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वराङ्गचरित में महाकाव्य कहे जाने वाले सभी मानक उपलब्ध है। सन्दर्भ : १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-६, प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध
संस्थान, वाराणसी १९७३ ई०, पृष्ठ संख्या १८३. २. वराङ्गचरित, सम्पा०- आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, प्रकाशक- माणिकचन्द
दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बई, १९३८, पृष्ठ २२.। ३. काव्यलङ्कार, भामह, व्याख्याकार- देवेन्द्रनाथ शर्मा, प्रका०- बिहार राष्ट्र
भाषा परिषद्, पटना, १९६२ ई०, १/१८.
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