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अनित्यता और क्षणिकता को जानकर क्षणभङ्गवाद का उपदेश दिया, जो एकदेश सत्य भी है।
संसार के सभी पदार्थों की क्षणभङ्गता, शरीर की अशुचिता और सांसारिक भोगों की असारता की ओर यदि जीव का ध्यान केन्द्रित हो जाये तो जीव को आत्मस्थ होने में देर न लगेगी और जीवन में इस सत्य दर्शन और सत्यज्ञान के आते ही इन सब के प्रति स्वाभाविक रूप से अरुचि उत्पन्न हो जायेगी। संसार, शरीर और भोगों के प्रति जीव की यही अरुचि जीव को स्व स्वभाव में केन्द्रित कर देगी। इसी ज्ञान को पण्डित दौलतराम जी ने परमामृत कहते हुये इसे जन्म, जरा और मृत्यु के निवारण और सुख में कारण कहा है
ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण।
इह परमामृत जन्म, जरा, मृत्यु रोग निवारण।। १२ विषयों की चाह रूपी भयङ्कर दावाग्नि संसारी जीव रूपी जङ्गल को जला रहा है उसे बुझाने के लिये केवलज्ञान रूपी मेघों का समूह ही समर्थ है, अन्य और कोई उपाय नहीं है।
विषय चाह दव-दाह जगत जन अरनि दझावै।
तास उपाय न आन ज्ञान घन-घान बुझावै।। १३ संसार, शरीर और भोगों की असारता का ज्ञान कराने के लिये जैनधर्म में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि, दुर्लभ और धर्म- इन बारह भावनाओं का उल्लेख किया गया है। १४ ये भावनायें वैराग्य को उत्पन्न करती हैं, इसलिये ये वैराग्य की मातायें कही गईं हैं।१५
संसार में रचे-पचे जीव के जीवन में अनेक बार श्मशानी वैराग्य पैदा होता है, संसार की असारता का ज्ञान होता है और श्मशान-घाट से बाहर निकलते ही दैनिक राग-रंग में रच-पच जाता है। इसलिये इन भावनाओं का नित्य चिन्तन करने से वैसा ही जीवन पर प्रभाव पड़ता है जैसे अग्नि को बार-बार पंखे से हवा करने पर अग्नि प्रज्वलित होती है। अर्थात् इन भावनाओं के चिन्तन से संसार की असारता का तो ज्ञान होता ही है, साथ ही समता रूपी सुख की प्राप्ति होती है। १६ जब तक जीव संसार में है तब तक उसके जीवन में सुख और दुःख के अनेक प्रसङ्ग उपस्थित होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो लोग इन भावनाओं के माध्यम से समत्व की उपासना करते हैं, अर्थात् सुख-दुःख में समताभाव धारण करते हैं, वे कभी भी दुःखी नहीं होते हैं। क्योंकि वे पदार्थों के संयोग-वियोग में अन्तर्निहित उनके मूल स्वभाव को जानते हैं। पदार्थ का जैसा स्वरूप है, वह वैसा ही रहेगा। उसे हम बदल नहीं सकते हैं। हाँ! हम
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