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अपने मन में संकल्प-विकल्प करके अपना संसार बढ़ा सकते हैं। इष्ट वस्तु के संयोग में सुखी और अनिष्ट वस्तु के संयोग में दु:खी अथवा इष्ट वस्तु के वियोग में दुःखी
और अनिष्ट वस्तु के वियोग में सुखी होना हमारी मनोगत कल्पनायें हैं। . ये सभी बातें आत्म-चिन्तन या तत्त्व-चिन्तन से सम्बन्ध रखती हैं, किन्तु हम संसार में रहते हैं तो हमें सांसारिक कार्यों में भी प्रवृत्त होना होगा। अत: ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिये? इस पर जैन-चिन्तकों ने विचार किया है और स्पष्ट निर्देश दिया है कि हम अपने जीवन में जीव मात्र के प्रति मैत्री स्थापित करें। अपने से अधिक गुणवान् व्यक्ति को देखकर उसका आदर सम्मान कर हर्ष का अनुभव करें। कष्ट में पड़े जीवों के प्रति कृपा भाव बनाये रखें और जो व्यक्ति हित की बात न सुनता हो तो उसके प्रति माध्यस्थ भाव को धारण करें। क्योंकि हमने उसके प्रति अपना कर्तव्य निभाने का पूरा-पूरा प्रयास किया है और कोई यदि उसे स्वीकार न करे तो उसमें हमें संकल्प-विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है।
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।। १७ इन्हीं चार भावनाओं को योगसूत्र में चित्त प्रसाधन का कारण बतलाया गया है। १८ अथवा बौद्ध दार्शनिकों की शब्दावली में मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा रूप चार ब्रह्म विहार कहा गया है। १९ इन भावनाओं को अपने जीवन में उतारने से आध्यात्मिक भूमिका स्वयं तैयार हो जाती है और जीव इससे ऊपर उठकर तत्त्व-चिन्तन में तल्लीन होता है। साधना के क्षेत्र में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने का यह एक वैज्ञानिक क्रम है। इससे पर पदार्थों के प्रति हमारी राग बुद्धि अथवा पर पदार्थों को ग्रहण करने की इच्छा समाप्त होने लगती है और हम अन्तर्मुखी होने की दिशा में अग्रसर होने लगते हैं।
यथार्थ में किसी वस्तु की इच्छा जाग्रत होना ही दुःख का कारण है। इसी इच्छा को आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने परिग्रह कहा है- इच्छा परिग्रहः।२० तथा इसी इच्छा को जीव का अज्ञानमय भाव कहा है, इच्छा तु अज्ञानमयो भावः। २१ यही अज्ञानमय भाव जीव को निरन्तर संसार में भ्रमण कराता है। अत: जीव को सभी प्रकार की इच्छाओं का त्याग करना चाहिये और इच्छाओं के त्याग के लिये यह आवश्यक है कि हम अपना मन तत्त्वोन्मुखी बनायें अर्थात् निरन्तर तत्त्व चिन्तन में लगे रहें। ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं।
__ सर्वार्थसिद्धि के जीव सांसारिक भोगों से दूर निरन्तर तत्त्व-चिन्तन में तल्लीन रहते हैं, अत: वे एक भावावतारी होते हैं२२ अर्थात् वे एक मनुष्य भव को धारण करके संयम ग्रहण करते हैं और अन्त में अष्ट कर्मों का नाश कर मुक्ति को प्राप्त होते हैं। यही जीव का चरम लक्ष्य है और उसका चरम आध्यात्मिक विकास है।
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