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अहं परमात्मने नमः का कंठ से, 'र' का मूर्धा से 'ह' का पुनः कण्ठ से और म का ओष्ठ्य से उच्चारण होता है, 'वे आगे कहते हैं कि अर्ह भगवान् महावीर का प्रतीक है --आनन्द केन्द्र थाइमस ग्रन्थि का प्रभाव क्षेत्र है-अर्ह उसको जाग्रत करता है। उनके अनुसार अर्ह से इष्ट की स्मृति, आनन्द की जाग्रति, मानसिक तनाव से मक्ति. आधि-व्याधि से सरक्षा और विकल्प शांत होते हैं--चैतन्य केन्द्र सजग होते हैं । इस प्रकार 'अ' कुंडलिनी का, 'र' अग्निबीज (कुसंस्कारों को भस्म करने वाला), 'ह' आकाश बीज और 'म्' झंकार है। ई से चिदाकाश का अनुभव और 'म' से ज्ञान तन्तु सक्रिय होते हैं। युवाचार्य ने प्रेक्षाध्यान में तैजस् केन्द्र के स्वर्णिम कमल के मध्य अहं की कल्पना, एवं उसकी अनुभूति की पद्धति बतायी है।
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर सहजता से पहुँचते हैं कि अहं जैन साधना का सर्वोत्तम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्त्र है। इसके विविध पक्ष प्राप्त होते हैं । प्राचीन सप्ताक्षरी मन्त्र 'ॐ'ह्रीं' 'श्रीं' अर्ह नमः, इसी का मन्त्र है । नवाक्षरी मन्त्र भी यही है 'ॐ ह्रीं अहम् नमः क्षीः स्वाहा। इसी प्रकार ऊं ह्री श्री अहम् अ-सि-आ-उ-सा नमः' में श्री अह ही प्रमुख है। और भी अनेक हैं। इसके साथ-साथ जैन साधना पद्धति के कूट-अकूट मन्त्रों और बीजाक्षरों में अन्य दर्शनों से समानता पायी जाती है। इस समान दृष्टि का आयाम भारतीय चिन्तन धारा की समरूपता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैनाचार्यों ने जिस उदारता से अह की विष्णु, ब्रह्मा और शिव सापेक्ष व्याख्या की है-वह इसका साक्ष्य है। बौद्ध धर्म साधना के परिप्रेक्ष्य में भी समस्त बीजाक्षरों का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है, इसके आधार पर हम भारतीय संस्कृति की सतत् प्रवहमान धारा का अवलोकन कर सकेंगे। तृतीय दृष्टि से योग-साधना में नव चक्र, रन्ध्र-विन्यास और इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का निरूपण भी तत्त्वतः कुछ समानता रखता है यह सही है कि इसमें विभिन्न जैन आचार्यों ने अपनी विशिष्ट और भिन्न दृष्टि अपनायी है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि ओऽम का विश्लेषण विवेचन भारतीय दार्शनिक चिन्तन की मूलभूत समरूपता का निदर्शन कराता है। पंचपरमेष्ठि की व्याख्याएं इसका प्रमाण हैं। समय आ गया है कि हम संतुलित और सम्यक् दृष्टि से इस महत्त्वपूर्ण
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