Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 39
________________ ३७ कर्मबन्ध का तुलनात्मक स्वरूप परिणाम निश्चित होता है। योगदर्शन में प्रतिक्षण किए जाने वाले कर्म की तीन गतियाँ मानी गयी हैं—कृत कर्मफल का नाश (शुक्लकर्मोदयवश कृष्णकर्मों का वर्तमान जन्म में क्षय)२, प्रधान कर्म के साथ गौगरूप से फलित होना एवं गौण कर्मों का प्रधान कर्म से अभिभूत होकर चिरकाल तक पड़े रहना । योग विचारकों का कथन है कि नारकियों का दृष्टजन्मवेदनीय और जीवन्मुक्तों का अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय नहीं होता । कर्मों की जड़ है -क्लेश । तदनन्तर कर्मों से क्लेश एवं क्लेशों से पुनः कर्म होते रहते हैं । क्लेशमूलक कर्म ही फलदायी होते हैं कर्म वासना, आशय या संस्कारों के रूप में स्थित स्वीकार किए गए हैं। अयोगियों के कर्मों से उनके फलानुकूल गुणों वाली वासनाओं की अभिव्यक्ति होती है । एक देहान्त के बाद नया जन्म पूर्ववासनाओं की सहायता से ही होता है। ये अनादि वासनायें अपने हेतु ( रागादि ), फल, आश्रय ( चित्त ) और आलम्बन ( विषयादि ) के आधार पर विद्यमान रहती हैं। जिस योनि में जन्म होने वाला है उस योनि में भोगने योग्य जन्मान्तरकृत तदनुरूप कर्मोत्पन्न वासना व्यक्त होती है ( योगसूत्र ४८)। जैसे—किसी मानव का अगला जन्म कर्मवश पशु योनि में होने वाला है। उस मानव ने पूर्वजन्मों एवं वर्तमान जन्म में जितने पशुवत् कार्य (मन-वचन-काय से) किए थे, चित्त में विद्यमान वे सभी पाशविक वासनायें, पशुयोनि प्राप्त होने पर उबुद्ध हो जाती हैं और फल देने लगती हैं। कर्मफल का उदय अपने प्रकाशक कर्म की सहायता से होता है। ___मीमांसा का प्रधान विषय यज्ञादि कर्म है। इसीलिए इसे कर्मदर्शन कहा जाता है-कर्मेति मीमांसकाः । इनके विचार में वेदसम्मत कर्म "धर्म" एवं वेदनिषिद्ध कर्म "अधर्म' हैं। वेदसम्मत १. योगसूत्र ४।८ व्यासभाष्यसहित २. तत्र कृतस्याविपक्वस्य नाशो यथा शुक्लकर्मोदयादि हैव नाशः कृष्णस्य योगसूत्र २।१३ पर व्यासभाष्य ३. योगसूत्र १।२१, २।१४ ४. योगसूत्र २।१२ पर व्यासभाष्य ५. योगसूत्र ३।३७ और ५१, ४।१ पर व्यासभाष्य ६. योगसूत्र २।१२-१४, ४।८-११ पर व्यासभाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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