Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ ६८ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ प्रमुख मिश्रित जातियों के संघटन का उल्लेख मिलता है। इनमें अम्बष्ठ (ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न), उग्र (क्षत्रिय पुरुष एवं शूद्रा स्त्री), निषाद (ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्रा स्त्री), अयोगव (शूद्र पुरुष एवं वैश्य स्त्री), मागध (वैश्य पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री), चाण्डाल (शूद्र-पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री), सूत (क्षत्रिय पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री, क्षत्ता (शूद्र-पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री), वैदेह (वैश्य पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री), श्वपक (उग्र पुरुष एवं क्षत्ता स्त्री), वैणव (विदेह पुरुष एवं क्षत्ता स्त्री), वुक्कस (निषाद पुरुष और अम्बष्ठ स्त्री)तथा कुक्कुरक (शूद्र-निषाद के संयोग से उत्पन्न) उल्लेखनीय हैं। स्थानांगसूत्र में अम्बष्ठ, कुलन्द, वैदेह, हरित, वैदिक और चुंचुण का उल्लेख हुआ है। ग्रन्थ में इनकी विवेचना करते हए आर्य एवं इभ्य बताया गया है। इभ्य उसे कहा जाता था, जिसके पास धनराशि इतनी ऊँची हो कि सैंड को ऊँचा किया हुआ हाथी भी न दिख सके। इभ्य की इस परिभाषा से इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र जातीय माता की वैश्य से उत्पन्न संतान से इन इभ्य जातियों के नाम पड़े हैं। क्योंकि व्यापार करने वाले वैश्य सदा से धन-सम्पन्न रहे हैं। भिक्षायोग्य कुल___ आचारांगसूत्र में भिक्षुओं के लिए भिक्षा-योग्य कुलों की चर्चा करते हुए उग्रकुल, भोगकुल, राजजन्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापितकुल, बढ़ई-कुल, ग्राम रक्षककुल और तन्तुवाय (बुनकर) कुलों से भिक्षा प्राप्त करने का निर्देश दिया गया है। यद्यपि जैन श्रमण समता योगी होता है, जाँति-पाँति के भेदभाव, छुआ-छूत, रंग-भेद, सम्प्रदाय-प्रान्तादि भेद में उसका तनिक भी विश्वास नहीं होता, न वह इन भेदों को लेकर राग-द्वेष, मोह-घृणा या ऊँच-नीच व्यवहार करता है बल्कि शास्त्रों में जहाँ साधु के भिक्षाटन का वर्णन आता है, वहाँ स्पष्ट उल्लेख है"उच्चनीयमज्झिमकुलेसु अडमाणे"५ अर्थात् उच्च, नीच और मध्यम १. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० २२३ २. स्थानांगसूत्र, ६।३४-३४, पृ० ५४३ ३. देखिए, स्थानांग, विवेचन पृ० ५४३ ४. आचारांगसूत्र, २।१।३३६, पृ० २३ ५. वही विवेचन पृ० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114