Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 85
________________ आचारांग में अनासक्ति है। संयमनिष्ठ साधु के आहार की व्याख्या करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि 'साधु' के आहार को आहार उपलब्ध होने पर आहार के परिमाण का भी ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि यदि परिमाण से अधिक भोजन ले लिया जाय तो गृहस्थ को अपने एवं अपने परिवार के लिए कष्ट होगा। इसलिए केवल शरीर निर्वाह हेतु आवश्यक आहार ग्रहण करे। यदि न मिले तो भी उसमें समभाव रखना चाहिए। आहार मिलने पर मुनि को गर्व एवं न मिलने पर खेद नहीं करना चाहिए। प्रचुर मात्रा में आहार मिल जाय तो उसे मर्यादित काल से अधिक अगले दिन के लिए संग्रह करके नहीं रखना चाहिए अन्यथा वह परिग्रही हो जायेगा।' आहारार्थी भिक्षु को कालज्ञ, बलज्ञ, विनयज्ञ एवं मात्रज्ञ होना चाहिए, उसे अनौदर्य तप का पालन करना चाहिए। आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध में साधु के आहार के सम्बन्ध में पिण्डैषणा एवं पानैषणा नामक अध्ययन में विस्तृत चर्चा हुई है। यहां यही कहना अभीष्ट होगा कि साधु को प्रिय भोजन में आसक्ति न रख भिक्षा द्वारा गृहस्थ से जो भी निर्दोष आहार मिले उसे निर्लोभ भाव से ग्रहण करना चाहिए। वस्त्र में अनासक्तिः वस्त्र में अनासक्ति का तात्पर्य यह है कि अपरिहार्य स्थिति में जो वस्त्र श्रमण के लिए आवश्यक है उन वस्त्रों में आसक्ति का परित्याग। साधु को चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर जैसे भी साधारण वस्त्र मिल जाँय उसी में सन्तोष करता हुआ समभाव से साधना में संलग्न रहे। दशवैकालिक में कहा गया है कि मात्र वस्त्र-पात्र, परिग्रह नहीं अपितु उसमें आसक्ति रखना परिग्रह है। भिक्षु को यह विचार नहीं करना चाहिए कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है इसलिए मैं नये वस्त्र की याचना करूँगा, फटे हुए वस्त्र को सीऊँगा, छोटे से बड़ा या १. वही-१।२।५।९१ ३. (i) दशवकालिक २।४।१५ (ii) सो य परिग्गहो चेयणाचेयणेसु दव्वेसु मुच्छानिमित्तो भवइ । जिनदास चूर्णि-पृ० १५१ प्रकाशक श्री जैनबन्धु मुद्रणालय. इन्दौर वि० सं० १९८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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