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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
८६ पुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादि क्रिया है। कर्म, बन्धन का कारण है। जैन दर्शन की मान्यता है कि 'कर्मणाबध्यते जन्तु' यह उक्ति निरपेक्ष सत्य नहीं हो सकती, क्योंकि कुछ कर्म, बन्धन कारक होते हैं एवं कुछ कर्म बन्धनकारक नहीं होते । इन्हें क्रमशः 'कर्म' एवं 'अकर्म' कहा गया है । कर्म के इस स्वरूप की विवेचना हमें सर्वप्रथम आचारांग एवं सूत्रकृतांग में मिलती है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि 'कुछ कर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं, कुछ अकर्म को वीर्य' (पुरुषार्थ) । तात्पर्यतः सक्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है एवं कुछ विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है। महावीर कहते हैं कि 'कर्म' का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का अर्थ शरीरादिक चेष्टा का अभाव नहीं किया जाना चाहिए, वस्तुतः प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है । अप्रमत्त अवस्था में क्रियाशीलता भी अकर्म एवं प्रमत्तदशा में निष्क्रियता भी कर्म बन जाती है। अतः क्रिया का बन्धकत्व उसके पीछे रहे हुए आसक्ति, राग और द्वेष की स्थिति पर निर्भर है। राग, द्वेष एवं कषाय ही किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं जबकि कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया गया कर्म, अकर्म बन जाता है।
आचारांग में महावीर स्वामी ने स्पष्ट कहा है कि जो आस्रव या बन्धन कारक क्रियाएं हैं वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती हैं । पं० सुखलाल कहते हैं कि मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही कर्म है। राग और द्वेष दोनों कर्म बीज हैं जिसका कारण मोह है। आसक्ति ममत्व से रहित जो कर्म होगा वही अकर्म या अबन्धनकारक होगा। गीता भी जैन दर्शन के अनुरूप ही फलासक्ति से युक्त १ सूत्रकृतांग-१ ८.१- २ (मधुकर मुनि. श्री आगम प्रकाशन समिति.
व्यावर-१९८२ । २. वही १।८।३ ३. जे आसवा ते परिसव्वा जे परिस्सवा से आसवा-आचारांग १।१।४।२।१ ४. दर्शन और चिंतन-पं० सुखलाल जी खण्ड १-२ पृ० २२५, प्रका० ५०
सुखलाल जी सम्मान समिति, अहमदाबाद-१९५७
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