Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 103
________________ ( १०१ ) व्यक्ति चेतना-शून्य हो, क्या दूसरा व्यक्ति मृत्यु दे सकता है ? क्या वह वैधानिक दृष्टि से हत्या का दोषी माना जायेगा? क्या समाधिमरण को प्रोत्साहित करने वाले व्यक्ति आत्म-हत्या के प्रेरक के रूप में वैधानिक दृष्टि से अपराधी माने जायेंगे ? नैतिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या व्यक्ति को स्वेच्छा से देह-त्याग का अधिकार है ? यदि हाँ, तो किन परिस्थितियों में ? पुनः नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए देह त्याग एवं अपवाद मार्ग का अनुसरण में से कौन सा पक्ष उपादेय है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह प्रश्न भी विचारणीय बनता है कि क्या शरीर के प्रति निर्ममत्व सम्भव है। इसी प्रसंग में आत्महत्या और समाधिमरण के अन्तर का स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। ये सब समाधिमरण की अवधारणा के साथ उभरते हुए प्रश्न हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है। प्रस्तुत संगोष्ठी का उद्देश्य मात्र परम्परागत विवरण देना ही नहीं है, अपितु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समाधिमरण की अवधारणा की समीक्षा एवं मूल्यांकन करते हुए उपरोक्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना है। विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इनमें से किसी एक पक्ष पर विस्तार से अपने विचार प्रस्तुत करें। डॉ० सागरमल जैन, निदेशक 'समाधि मरण' पर संगोष्ठी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन द्वारा 'नैतिक, सामाजिक एवं संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में समाधिमरण की अवधारणा का मूल्यांकन' विषय पर दिनांक १३ एवं १४ अक्टूबर, १९९१ को प्रातः ९:३० बजे से दो दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। विद्वानों से वांछित पक्षों पर आलेख दिनांक ३० सितम्बर तक आमन्त्रित किए गए हैं। प्रकाशन हेतु स्वीकृत निबन्धों पर मानदेय की व्यवस्था है। आमन्त्रित विद्वानों को द्वितीय श्रेणी का रेलयात्रा-व्यय देय होगा। डा० मुकुलराज मेहता (संगोष्ठी संयोजक) पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान आई० टी० आई० रोड, बी० एच० यू०, वाराणसी-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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