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समाधिमरण की अवधा- . की आधुनिक
परिप्रेक्ष्य में समा ।
वीतराग, अनासक्त एवं तृष्णारहित जीवन को अपना परम साध्य मानने वाली सभी साधना पद्धतियों का अंतिम लक्ष्य निर्ममत्व की साधना है। इस साधना का परिपाक समाधिमरण की अवधारणा में होता है। सामान्यतया समाधिमरण (संलेखना) की अवधारणा सभी धर्मों की साधना पद्धतियों में प्रकारान्तर से उपस्थित रही है। किन्तु इस विषय पर विशेष बल जैन साधना पद्धति में दिया गया है। जब मृत्यु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही हो, जब जीवन की सरस धारा सूख रही हो और जीवन को काल के कराल पंजों से मुक्त करा लेना सम्भव नहीं रह गया हो; जीवन व्यक्ति स्वयं और समाज के लिए भार बन गया हो अथवा जब नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को नकार कर ही देह का संरक्षण सम्भव हो, तब मृत्यु से भयभीत न होकर अनासक्ति पूर्वक समभाव से युक्त हो देह का परित्याग कर समुपस्थित मृत्यु का आलिंगन कर लेना ही समाधिमरण का तात्पर्य है। देह के प्रति निर्ममत्व का भाव जीवन में कितना विकसित हुआ है, इसकी चरम कसौटी समाधिमरण है । अनासक्त जीवन दृष्टि की और देह के प्रति निर्ममत्व की बात करना सहज है, लेकिन उसे जीवन में प्रति फलित करना अत्यन्त कठिन है । क्योंकि मनुष्य के ममत्व या आसक्ति का सबसे सुदृढ़ केन्द्र उसका अपना शरीर ही है। मनुष्य के सारे दुःख, दुराचरण और पाप शरीर एवं उससे जनित वासनाओं की परिपूर्ति के निमित्त ही होते हैं। अतः आध्यात्मिक साधना का चरम आदर्श देह के प्रति भी निर्ममत्व भाव को अपना लेना है । समाधिमरण का तात्पर्य न तो जीवन से भागना और न ही जानबझ कर मृत्यु को निमन्त्रण देना (आत्म हत्या) है, अपितु वह तो अपरिहार्य रूप से जीवन के अन्तिम चरण में समुपस्थित मृत्यु का समत्व भाव से आलिंगन करना है। समाधिमरण के लिये जीवन और मृत्यु, दोनों
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