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महावीर निर्वाण भूमि पावा - एक विमर्श
और दूरी के आधार पर, बुकनन ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने १८१४ ई० में इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया था और पडरौना के उपनगर छावनी से कुबेर स्थान जाने वाले मार्ग के दाहिनी तरफ छावनी के निकट ही स्थित, प्राचीन टीले का उत्खनन करवाया था । महानिदेशक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, अलेक्जेंडर कनिंघम ने, इस क्षेत्रका १८६१ में सर्वेक्षण तथा इस प्राचीन टीले का उत्खनन करवाकर, इस तथ्य को निश्चित रूप से घोषित किया था कि पडरौना ही पावा है अन्य विद्वानों ने भी समय-समय पर इस तथ्य का अनुमोदन किया है । कनिंघम ने उत्खनन के आधार पर दोस्तूपों की सम्भावना व्यक्त की है । पडरौना से अनेक जैन एवं बुद्ध मूर्तियाँ एवं कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं । जिनका वर्णन बुकनन एवं कनिंघम ने किया है। बुकनन ने तीन मूर्तियों को रेखांकित किया था जो "इस्टर्न इण्डिया" में उपलब्ध है । इनके अतिरिक्त मूर्तियाँ एवं कलाकृतियाँ राज्य पुरातत्व संग्रहालय, लखनऊ, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, पटना मण्डल, पटना, गोस्वामी तुलसीदास इण्टर कालेज, पडरौना में सुरक्षित हैं । काले प्रस्तर की विशाल जैन मूर्ति टीले के निकट अभी तक रखी हुई हैं ।
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कारलाईल का कनिंघम के मत को खंडन करने तथा पडरौना को पावा न मानने का मूलभूत आधार यह था कि पडरौना की स्थिति वैशाली कुशीनगर के सीधे मुख्य मार्ग पर नहीं है । यह वैशालीकुशीनयर मार्ग से बिल्कुल हटकर, बहुत उत्तर की ओर स्थित है । अतः पडरौना को पावा मानने की कोई सम्भावना ही नहीं है । अब मूल प्रश्न मार्ग का है । वैशाली से कुशीनगर का प्राचीन मार्ग कौन सा था ? इस तथ्य के निर्णय के लिए, इस क्षेत्र का बौद्धकालीन भौगोलिक अध्ययन नितान्त आवश्यक है । प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र की महत्ता रही है एवं प्रमुख राजमार्ग इस क्षेत्र से होकर जाते रहे हैं । " शतपथ ब्राह्मण" से ज्ञात होता है कि सरस्वती के किनारे से वैदिक धर्म की पताका फहराते हुए, अपने पुरोहित गौतम राहुगण तथा वैदिक धर्म के प्रतीक अग्नि के साथ विदेह माधव नदियों को सुखाते, बनों को जलाते हुए, सदानीरा ( आधुनिक गण्डक) के किनारे जा पहुँचे, उस समय तक नदी के उस पार वैदिक संस्कृति
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