Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 93
________________ जैन अभिलेखों की भाषाओं का स्वरूप एवं विविधताएँ ऐसे शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः निश्चित रूप से इन अभिलेखों की प्राकृत भी न 'आर्षप्राकृत' है और न अर्धमागधी और न महाराष्ट्रीय ही है। खारवेल के अभिलेख के पश्चात् मथुरा के अभिलेख आते हैं । इन अभिलेखों की भाषा में अत्यधिक विविधता है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं----'ना अरहतायतने सह मातरे भगिनिवे घितरे पुत्रेण सविन च परि.जनेन अरहत पुजाये' इसमें हम देखते हैं जहाँ 'पुत्रेण' ऐसा संस्कृतरूप है वहाँ 'मातरे' रूप भी है, जो न तो संस्कृत कहा जा सकता है न तो प्राकृत ही । इसी प्रकार मथुरा के अभिलेखों की भाषा में कहीं प्राकृतरूप, कहीं संस्कृतरूप और कहीं ऐसे रूप मिलते हैं जिसे न तो संस्कृतरुप कहा जा सकता है और न तो प्राकृत रूप । मथुरा के अभिलेखों तक अर्थात तीसरी शताब्दी तक जैन अभिलेखों में हमें एक भी शुद्ध संस्कृत का अभिलेख नही मिलता है । शुद्ध संस्कृत के अभिलेख सम्भवतः ईसा की पांचवी शताब्दी से मिलने लगते हैं। इसमें संस्कृत का पहाड़पुर का अभिलेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसका भाषायी स्वरूप निम्न प्रकार है-'पंचस्तूपनिकायिकनिर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य-गुहनन्दि शिष्य-प्रशिष्याधिष्ठित विहारे' ।। उक्त अभिलेख की भाषा शुद्ध संस्कृत है। यह उत्तर भारत में बंगाल के अभिलेख का उदाहरण है । दक्षिण भारत में भी इस काल के जैन अभिलेख संस्कृत में मिलते हैं। इनमें देवगिरि, हल्सी, नोणमंगल, आदि के अभिलेख हैं। इन अभिलेखों की भाषा व्याकरण निष्ठ संस्कृत है। ई० पू० पाँचवी शताब्दी से लेकर ईसा की पाँचवी शताब्दी तक आते-आते १. जै० शि० सं०, भा॰ २, अभि० ८ २. वही, भा० ४, अभि० १९ ए० इ० २०, पृ० ५९ ३. वही, भा० ४, अभि० १९ ४. वही, भा० २, अभि० ९७, अभि० ९७, ९८, १०५ ५. वही, भा० २, अभि० ९७-१०४ ६. वही, भा० २, अभि० ९०, ९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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