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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
इन अभिलेखों में भाषा के स्वरूप एवं व्याकरण पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। भाषागत अशुद्धियाँ बहुत है। कभी-कभी तो इनके अर्थ-निर्धारण में भी कठिनाई होती है। जैन अभिलेखों में सबसे प्राचीन अभिलेख बडली(अजमेर) का माना जाता है। इसकी प्राचीनता के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। मतभेद का आधार उसमें उल्लिखित वीराय शब्द के अर्थ हैं। कुछ विद्वान् वीर को विक्रमादित्य से सम्बद्ध मानकर इसे ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध का बताते हैं किन्तु 'वीराय भगवते' शब्द का उल्लेख महावीर के लिए है। अतः महावीर निर्वाण के ८४ वर्ष बाद का यह अभिलेख माना जाना चाहिए।
काल की दृष्टि से बडली के अभिलेख के पश्चात् जैनों के उल्लेख, से युक्त अशोक के अभिलेखों का क्रम आता है। अशोक के अभिलेख में निर्ग्रन्थ संघ का उल्लेख हुआ है । यद्यपि अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था किन्तु उसके अभिलेखों में पाली का प्रयोग नहीं है, प्राकृत का ही प्रयोग है । साथ ही उसमें आर्ष और मागधी के रूप ही अधिक मिलते हैं । जैसे राजा के स्थान पर 'लाजा' और ब्राह्मण के स्थान पर 'बाभन४' इत्यादि । इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि इन अभिलेखों में लोकभाषा का प्रभाव पर्याप्त रूप से था । पढ़ने में यह भाषा कभी संस्कृत के निकट तो कभी प्राकृत के निकट प्रतीत होती है। ब्राह्मणों के लिए 'बामन' शब्द का प्रयोग न तो किसी साहित्यिक प्राकृत में और न ही संस्कृत में मिलता है। इसी प्रकार खारवेल के अभिलेख में एक स्थान पर युवराज के स्थान पर 'योवरजै', कल्पवृक्ष के लिय 'कल्परुखे। शब्द का प्रयोग है । इसी अभिलेख में एक स्थान पर 'कलिंगराजवंसे"
१. जै० शि० सं०, भा० ४, अभि० १ २. वही, भा० २, अभि० १ ३. वही, भा० २, अभि० १ ४. वही, भा० २, अभि० १ ५. वही, भा० २, अभि० २ ६. वही, भा० २, अभि० २. श्लोक २ ७. वही, भा० २, अभि. २ श्लोक १,
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