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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
८८ निर्माण आसक्ति से होता है । आकांक्षाओं का उच्चस्तर जो सतत् पूर्ण होने की अपेक्षा रखता है, वस्तुतः राग-द्वेष मूलक है क्योंकि मानव स्वभावतः असीम आकांक्षाओं का पुञ्ज है और ये आकांक्षाएं जब पूर्ण नहीं होती तो अनेक बुराइयों यथा-द्वेष, शोक, कुंठा एवं हिंसा आदि को जन्म देती हैं, फिर यदि आकांक्षाएं किन्हीं सीमा तक पूरी भी हो जॉय तो प्राप्य की प्राप्ति होने पर वह उनके प्रति आसक्ति से मुक्त नहीं हो पाता । इसीलिए आचारांग वस्तु त्याग के स्थान पर ममत्व त्याग को महत्व देता है, क्योंकि जहाँ ममत्व या राग है वहाँ द्वष भी है, दोनों परस्परापेक्षी हैं। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय सापेक्ष मनोवृत्तियों में अन्तनिहित हैं। यदि इनमें से किसी एक पर विजय पा ली जाय तो सब पर विजय प्राप्त हो जायेगी । व्यवहारतः यह कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं है। आचारांग श्रमणसाधना के जो चित्र प्रस्तुत करता है उनमें अनासक्ति एवं अहिंसा सिद्धान्तः जितने महत्त्वपूर्ण हैं, व्यवहारतः इन्हें मानव-जीवन में उतार पाना निःसन्देह कठिन है। इसका संकेत कल्पसूत्र* की टीकाओं में सष्टतः परिलक्षित होता है, जहाँ महावीर स्वामी के अनन्य शिष्य आचार्य गौतम के सभी शिष्य-अशिष्य वीतरागता को प्राप्त कर लेतै है परन्तु स्वयं गौतम नहीं कर पाते । कारण पूछने पर प्रभु ने स्पष्ट किया कि 'तेरी मुझमें जो आसक्ति है, मेरे प्रति जो राग है वही तुम्हारी वीतरागता की प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है'। महावीर की देशनाओं में अनासक्ति और अहिंसा प्रमुख तत्त्व थे जिनका आचारांग की गाथाओं में अद्वितीय समावेश है। आचारांग में मुख्य रूप से मूल्यात्मक चेतना की सबल अभिव्यक्ति हुई है जिसका प्रमुख उद्देश्य अनासक्ति, सत्य एवं समता आदि के माध्यम से एक ऐसे अहिंसात्मक समाज का निर्माण करना है जिसमें समता के आधार पर सुख, शांति और समृद्धि के बीज अंकुरित पुष्पित एवं पल्लवित हो सकें। १. जे एगँ जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाण इ जे एग
नामे से बह नामे जे बहु नामे से एगं नामे । आचारांगसूत्रः-१।१।३।४ २. (i) एवं च मयि तव गाढत्वेन स्नेहस्य न वेवलज्ञानमुत्पद्यते ।
भगवती, अभय देवकृत वृत्ति, पृ० ११८७ (ii) मुक्खमग्ग पवन्नानं सिनेहो वज्जसिंखला
वीरे जीवन्तए जाओ गोयम न केवली । कल्पसूत्र टीका, विनयविजय कृत, पृ १२१
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