Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 89
________________ आचारांग में अनासक्ति कर्म को कर्म एवं फलासक्ति से रहित कर्म को अकर्म कहती है । आचारांग एवं गीता में कर्म में अनासक्ति या निष्काम कर्म के स्तर पर कतिपय स्थलों पर विचारसाम्य परिलक्षित होता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है अग्रकर्म और मूल कर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म कर। ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी वह साधक निष्कर्म ही कहा जाता है। निष्कर्मता के जीवन में उपाधियों का आधिक्य नहीं होता, लौकिक प्रदर्शन नहीं होता। उसका शरीर मात्र शारीरिक क्रियाओं (योगक्षेम) का वाहक होता है । गीता कहती है कि आत्मविजेता इन्द्रियजित् सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कर्म का कर्ता होने पर निष्कर्म कहा जाता है । वह फलासक्ति से मुक्त होकर कर्म करता है पर फलासक्ति से बँधा कर्मबंधन से बँध जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट कहा गया है कि भावों से विरत जीव, शोक रहित हो जाता है वह कमल पत्र की तरह संसार रूपी कीचड़ से लिप्त नहीं होता। आचारांग निष्कामदर्शी की महिमा की व्याख्या करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निष्कर्मदर्शी पुरुष आत्मा के मूल को प्रच्छन्न करने वाले घातिकर्म एवं अघातिकर्म चतुष्टय को दूर कर कर्म साधना के द्वारा कर्म बन्धन के आवरण से रहित सर्वज्ञ बन जाता है । वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग में जिन वस्तुओं में अनासक्तिभाव रखने की विवेचना की गई है वे मानव व्यक्तित्व के अपरिहार्य एवं आवश्यक अंग हैं। इन वस्तुओं के प्रति राग का त्याग कर भगवान् महावीर द्वारा निरूपित श्रमण-साधना के उच्चशिखर पर पहुंचा जा सकता है । आसक्ति या राग और द्वेष जो कर्मबीजात्मक हैं, ग्रंथिरूप हैं, जिनका खुल जाना ही निग्रन्थ होने का वास्तविक अर्थ है । क्योंकि निग्रन्थ का अर्थ ही होता है ग्रन्थि रहितहोना एवं ग्रंथि का १. आचारांग-१।३।२।४ द्रष्टव्य-आचारांग (संतबाल) परिशिष्ट ३६-३७ २. गीता-५।७, ५।१२ गीता प्रेस, गोरखपुर १९८२ ३. उत्तराध्ययनसूत्र-३२।९९ ४. अग्गं च मूलंच विगिंच धीरे पलिच्छिदिया णं निक्कम्मदंसी-आचारांग १।१।३।२।१ ५. एस मरणा पमुच्चई । वही १।३।०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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