Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 87
________________ आचारांग में अनासक्ति उनका ध्यान नश्वर शरीर की तरफ न होकर आत्मा में केन्द्रित था। वे शरीर की निःसारता को जानते थे इसलिए उन्हें शरीर से ममत्व न था। शरीर के प्रति ममत्व रखने वाले अनेक व्यक्ति शरीर के शृंगार के लिए अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। ध्यातव्य है कि शरीरसौन्दर्य प्रसाधन के लिए बनाये जाने पदार्थों में अनेक जीवों के रक्त, मांस, चर्बी आदि का भरपूर उपयोग किया जाता है । शरीर में आसक्त व्यक्ति इस नश्वर शरीर को सजाने-संवारने के लिए अनेक प्राणियों का बध करता है। आचारांग ऐसे शरीर के प्रति ममत्व न रखने का उपदेश देता है। कर्म में अनासक्ति : जैन दर्शन में जीव की क्रिया के हेतु को कर्म कहा गया है । कर्म के द्रव्यात्मक एवं भावात्मक ये दो पक्ष हैं। कर्म संकल्प के हेतु रूप में विचारक (उपादानकारण) और उस विचार के प्रेरक (निमित्त कारण) दोनों ही आवश्यक हैं। आत्मा के मानसिक विचार भावकर्म हैं और ये मनोभाव जिस निमित्त से होते हैं वह द्रव्यकर्म है । आचार्य नेमिचन्द्र ने कर्म के चेतन-अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हए पुद्गलपिण्ड को द्रव्यकर्म एवं चेतना को प्रभावित करने वाली उसकी शक्ति को भावकर्म कहा है। अतः जैन परम्परा में कर्म के दो पक्ष हैं(१) राग, द्वेष, कषाय आदि मनोभाव और (२) कर्मपुद्गल । कर्म १. वही १।१।६।५४ २. कीरइ जिएण हेडहिं. जेणंतो भण्ण ए कम्मं । कर्मविपाक–देवेन्द्रसूरि विरचित. अनु० पं० सुखलाल जी । श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल. आगरा-१९३९ ई० ३. जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन.-डा० सागरमल जैन. पृ० १०७. राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान. जयपुर-१९८० ४. कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि विंह त् । पोग्गल पिण्डो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥ गोम्मटसार-६ आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा विरचित. प्रका "श्री परमश्रुत प्रभावक. जैन मण्डल. बम्बई वि० सं० १९८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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