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आचारांग में अनासक्रि
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(i) इच्छावासना रूप काम (i) मैथुन सेवन रूप काम
इन द्विविध कामों का उद्भव मोहनीय कर्म के उदय से होता है। हास्य-रति आदि से इच्छा, आकांक्षा एवं वासना उद्भूत होती है और वेदोदय से मैथुन सेवन की प्रवृत्ति होती है। अतः काम भोग मोहनीय कर्मजन्य है और जब तक मोहनीय कर्म का सद्भाव रहता है तब तक उनका सर्वथा उन्मूलन कर पाना कठिन होता है क्योंकि मोहकर्म को सब कर्मों का राजा कहा गया है, इसलिए विषय भोगों की ओर प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। उनका त्याग करना चाहिए। जिन जीवों ने कामभोगों की वास्तविकता को नहीं जाना है - अर्थात् उन्हें तुच्छ, निस्सार एवं अनर्थकारी जानकर नहीं त्यागा है वे उसकी प्राप्ति एवं प्राप्त होकर नष्ट हो जाने से निरन्तर शोक-संताप का अनुभव करते हैं । काम-भोगों में आसक्त ऐसे अज्ञानी जीवों के दुःख उपशांत नहीं होते, वे पापकर्मों का उपचय करते हैं, बार-बार दुःखों के आवर्त्त में भ्रमण करते हैं एवं भव-भ्रमण रूप कर्मवृक्ष का सिंचन करते हुए बारबार गर्भ में आते हैं। कुछ व्यक्ति विषयों से इन्द्रियों का निरोध कर तो लेते हैं परन्तु मोहकर्म के बाधक होने के कारण विषयों से उनकी पूर्ण-अनासक्ति नहीं हो पाती। ऐसे व्यक्ति विषयों के संयोग को त्याग नहीं कर पाने के कारण मोक्ष मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं। आचारांग में विषय भोगों के प्रति अनासक्ति की व्याख्या करते हुए कहा गया है-विषय भोग से अनासक्ति या उपेक्षाभाव के लिए पुरुष का इससे पूर्णतया अनभिज्ञ होना (विषय भोग का आस्वाद न करना) आवश्यक नहीं है अपितु विषयों का भोग या सेवन करने के बाद भी उनका त्याग किया जा सकता है। लोग विषय-भोगों का सेवन करके भी त्याज्य भोगों को भोगने की इच्छा नहीं करते। वे भोगों को निस्सार एवं देवभव को भी जन्म एवं मृत्यु रूप जानकर विषय-वासना १. वही- १।२।५।१५ २. कामेसु गिद्धा निचयं करोति ससिच्च मागा पुरिति गम्भं ।
वही- १।२।२।५ ३. वही- १।४।४।१३९
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