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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ में आसक्त नहीं होते। जो लोभ को अलोभ से पराभूत करके प्राप्त कामभोगों का आसेवन नहीं करते वे ही सच्चे अर्थों में त्यागी हैं क्योंकि सुन्दर भोग विलास एवं भौतिक सुख-साधनों से युक्त तथा भोग करने में स्वतन्त्र एवं समर्थ रहकर भी इन्हें संसार में परिभ्रमण करने का साधन समझकर त्याग करने वाला ही असली त्यागी है । ३ इसलिए महावीर स्वामी ने विषयभोगों में अनासक्ति भाव रखने की देशना दी है। आहार में अनासक्ति :
यद्यपि संयम-साधना हेतु स्वस्थ शरीर महत्वपूर्ण है और शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए आहार एवं वस्त्रादि साधन भी आवश्यक हैं किन्तु आचारांग में संयममार्ग में प्रवर्त्तमान अनगार को किसी विशेष प्रकार के आहार में आसक्ति न रख केवल शरीर निर्वाह के लिए आवश्यक एवं निर्दोष आहार की गवेषणा करने का सामान्य रूप से उपदेश दिया गया है। सूत्रकार के अनुसार संयमनिष्ठ साधु को द्रव्य (घृत-चीनी) आदि का संग्रह न कर त्रिकरण एवं त्रियोग से सदोष आहार का त्याग करना चाहिए। वह न स्वयं सदोष आहार ग्रहण करे, न करावे, न कराने वाले का अनुमोदन करे। सूत्रकार ने 'आमगंध' एवं 'निरामगंध' शब्द को क्रमशः सदोष व निर्दोष आहार के लिए प्रयुक्त किया है। 'आम' शब्द प्रायः प्रायः सभी भारतीय परम्पराओं में प्रयुक्त हआ है, वैदिक ग्रन्थों में यह शब्द अपक्व, अन्न आदि के लिए प्रयुक्त हुआ है। पालिग्रन्थों में पाप के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया गया है, इस अपेक्षा से निराम का अर्थ होगा निष्पाप और 'आमगंध' का अर्थ होगा पाप की गंध या आधाकर्म आदि दोषों से दूषित आहार । आचारांग सदोष आहार के त्याग का उपदेश देता ४. आसेवित्ता एतं अट्ठ इच्येवेगे सगुठ्ठिया । वही- १।३।।।११५ ५. वही- १।२।२१७५ ६. जे य कंते पिए भोए. लद्धेविपिट्ठी. कुव्वइ ।
साहीणे चथइ. से हु चाइन्ति वुच्चइ ।। दसवेआलियं- २।८।३. वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी. प्रकाशक-जैन
श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा. कलकत्ता-सं० २०२० १. आचारांग सूत्र- १।२।५।८८
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