Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 76
________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ७४ का प्रमुखता से विवेचन करता है। आचारांग-नियुक्ति' में भद्रबाहु ने कहा है कि मुक्ति का अव्याबाध सुख आचार में है। अहिंसा, अपरिग्रह,. ब्रह्मचर्य, सत्य, समता, और अनासक्ति श्रमणाचार की धुरी हैं । प्रस्तुत निबंध में हम आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध में प्राप्त अनासक्ति सम्बन्धी तथ्यों का समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत करेंगे- जैन परम्परा में बन्धन के तीन मूलभूत कारण आसक्ति (राग) द्वेष और मोह माने गये हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में राग और द्वेष को कर्मबीज कहा गया है एवं इन दोनों का कारण मोह बताया गया है। राग और द्वेष में राग ही प्रमुख है। आचार्य कुन्दकुन्द ने राग को ही बन्धन का प्रमुख कारण मानते हुए कहा है कि आसक्त आत्मा ही कर्मबन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान् का उपदेश है, इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखो। आसक्ति से प्राणी स्व से भिन्न या चेतना से इतर पर पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति, संयोग-वियोग, लाभअलाभ एवं सुख-दुःख की कल्पना करने लगता है। आसक्ति या राग ही कामना, वासना, मूर्छा, अहंकार, पराश्रयता, आकुलता, निर्दयता, संकीर्णता, स्वार्थ लोलुपता, आग्रह, संग्रहवृत्ति आदि विकारों की जननी है । आचारांग में आसक्ति, आग्रह और संग्रह वृत्ति के निराकरण के लिए अनासक्ति, अनाग्रह और अपरिग्रह के सिद्धान्तों का उपदेश किया गया है। विवेच्य ग्रन्थ में अनासक्तिभाव रखने हेतु निर्दिष्ट वस्तुओं में घर-परिवार, धन, स्त्री, विषयभोग वस्त्र-पात्र, शरीर,. आहार और कर्म प्रमुख हैं। १. निव्वाणस्स उ सारो अव्वाबाहं जिणा विति । श्री भद्रबाहुस्वामिकृत्, आचारांग नियुक्ति,श्री सिद्ध चक्र प्रचारक समिति, जैन विजयानन्द प्रिटि० प्रेस कणपीठ बाजार सूरत से मुद्रित, वि० सं १९९१ २. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं नयन्ति । उत्तराध्ययनसूत्र ३२१७ साध्वी चंदना द्वारा सम्पादित वीरायतन प्रकाशन आगरा २. १९७२ ३. रत्तो बंधदि कम्म मुचदि जीवो विराग सम्पत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।। समयसार १५० डा० पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित. श्री गणेशवर्णी ग्रंथमाला, प्रकाशन, वाराणसी-१९७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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