Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 75
________________ आचारांग में अनासक्ति ( प्रथम श्रुतस्कंध के विशेष सन्दर्भ में डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय अतिप्राचीन काल से ही प्रवृत्तिमार्गी एवं निवृत्तिमार्गी दो धर्मसरणियों का अस्तित्व रहा है । निःसंदेह धर्मधारा को इन दो प्रवाहों ( प्रवृत्तिमार्गी और निवृत्तिमार्गी) में विभक्त करने में मानव में शाश्वत रूप से विद्यमान वासना और विवेक ही मूल कारक रहे हैं । वासनात्मक संतुष्टि के लिए ऐहिक सुख अपेक्षित है । परिणामतः ऐहिक सुख को अभीष्ट मानने वालों के लिए समष्टिवादी किंवा समाजाभिमुख एवं कर्मकाण्ड प्रधान, विधायक दृष्टि वाली प्रवृत्तिमार्गी परम्परा का अवलम्बन अपरिहार्थ था । दूसरी ओर विवेक, संयम और विराग की अपेक्षा रखता है । संयम के कारण ऐहिक सुखों के प्रति उपेक्षाभाव उत्पन्न होता है जिसकी परिणति सांसारिकता से विमुख निषेधात्मक दृष्टिप्रवण व्यष्टिवादी या एकाकीपन की ओर अभिमुख निवृत्तिमार्गी धारा में होती है । निवृत्तिमार्गी दैहिक आवश्यकताओं के प्रति उपेक्षाभाव, संसार के प्रति निःसारता और दुःखात्मकता का भाव रखते हैं और अनासक्ति विराग और आत्मतुष्टि को ही सर्वोच्च जीवन मूल्य मानते हैं । निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का जैनधर्म प्रतिनिधित्व करता है और स्वाभाविक रूप से दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति या मोक्षमार्ग को ही लक्ष्य मानता है । सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी त्रिरत्न को यहाँ मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया । इसमें भी चारित्र या आचार पर सर्वाधिक बल दिया गया है । मोक्ष - मार्ग साधना में आचार का महत्व इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि तीर्थङ्कर ने अर्थरूप में जिन आगमों का उपदेश किया है और जिसे गणधरों ने सूत्र रूप में निबद्ध किया है, उनमें श्रमण - साधना के निर्देशों एवं आचार नियमों का प्रतिपादन करने वाला ग्रंथ ही प्रथम स्थान रखता है । जैनदर्शन का वेद कहा जाने वाला आचारांग - शीर्षक यहू ग्रन्थ दर्शन एवं अध्यात्म के प्रतिपादन के साथ श्रमणाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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