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आचारांग में अनासक्ति
परिजनों में अनासक्ति :
साधनोन्मुख मनुष्य के लिए सर्वाधिक बाधक घर परिवार या स्वजनों के प्रति उसका मोह है। यही कारण है कि सबसे पहले परिवार या स्वजनों में अनासक्ति का उपदेश दिया गया है। परिवार के मोहीजन या प्रिय और अप्रिय परिजन, साधक जब बोध को प्राप्त कर साधना के पथ पर चलने का उपक्रम करता है तो अनेक तरह के प्रलोभन व वाग्जाल में उसे बाँधने का प्रयत्न करते हैं यथा- "हे पुत्र! तू हमको मत छोड़, हमने सदा तुम्हारे अभिप्राय या सुख-दुःख का ध्यान रखा है तुम्हें योग्य बनाने के लिए सब तरह का प्रयत्न किया है", आदि । वे आक्रंदन एवं रुदन करते हुए साधक को उसके पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का बोध करा उसे रोकने का प्रयास करते हैं। आत्मीय जनों के आक्रंदन एवं आर्तस्वर दुर्बलमन वाले साधक को विचलित कर देते हैं एवं स्वजनों के अनुराग के समक्ष उसका वैराग्य शरद ऋतु के बादलों की तरह उड़ जाता है। महापुरुषों ने ऐसी परिस्थिति आने पर संयम में दृढ़ रहने एवं आसक्ति का परित्याग करने का. उपदेश दिया है। व्यक्ति राग के कारण ही "यह मेरी माता है, मेरापिता है, मेरा भाई, मेरी बहन, मेरी पत्नी व मेरी पुत्रबधू है, ऐसा प्रलाप करता है।"२ वह स्वजनों हेतु एवं व्यक्तिगत स्वार्थ साधन के लिए विभिन्न पाप कर्मों में प्रवृत्त होता है। वह रागवश दूसरों को अपना समझ बैठता है एवं उनके लिए सब कुछ करता है परन्तु वही व्यक्ति जब वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है तो वे ही सम्बन्धी, परिजन उसकी निन्दा करने लगते हैं। रोगादि से ग्रस्त होने पर वे परिजन उसकी उपेक्षा करते हैं। भगवान् महावीर कहते हैं कि "पोष्य-पोषक सम्बन्ध वाले ये सम्बन्धी मृत्यु के आने पर तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते और न तू उनकी रक्षा कर सकता है, अतः उनमें अनासक्ति रख १. तं परिक्कमंतं परिदेव माणा मा चाहि इय ते वयंति छंदोवणीया अज्झो
व वन्ना अक्केदकारी जणगा रुयंति'''आचारांगसूत्र १।६।१।१७७ आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, जैन स्थानक, लुधियाना से
प्रकाशित-पृ० ४९३ २. माया में पिया में मज्जा में पुत्ता में धूआ में 'सहिसयण संगथसंथुआ में
वही- १।२।१।६३
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