Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ ७८ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ पार नहीं कर सकते। ऐसे धनसंग्रहकर्ताजीव धन विनष्ट होने पर विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं। मोह व अज्ञान के वशीभूत ये धनासक्त नहीं समझते कि भोगोपभोग प्राप्त करने का साधनरूप धन अन्तराय कर्म के उदय होने पर साधन-प्राप्ति हेतु निरर्थक हो जाता है । अतः जीव को धन-सम्पत्ति में आसक्त नहीं होना चाहिए। जैन दर्शन के अनुसार धनधान्यादि द्रव्यपरिग्रह हैं अतः अपरिग्रही होने के लिए असंयत लोक के वित्त-धन आदि का अनासक्त भाव से परित्याग करना चाहिए। स्त्रियों में अनासक्तिः-आचारांग के लोक - विजय (द्वितीय) अध्ययन में स्त्रियों को 'महामोह' नाम से अभिहित किया गया है । कामेच्छा-भोगाकांक्षा का मूल मोहकर्म का उदय है अतः काम और भोग में आसक्त होने से मोह कर्म की उदीरणा होती है। इससे तृष्णा एवं आकांक्षा में वृद्धि होती है एवं कर्मबंधन होता है। अतः भोग के सभी साधन मोह को बढ़ाने वाले हैं। काम विकार या मैथुन मोह को अधिक उत्तेजित करने वाला है, इससे भोगेच्छा एवं तृष्णा उदीप्त होती है एवं इसकी पूर्ति के लिए स्त्री का सहयोग अपेक्षित है। इसी अर्थ में स्त्री को महामोह कहा गया है। कामी या अज्ञानी पुरुषों के लिए स्त्रियाँ भोग की अनन्य साधन हैं परन्तु वे अज्ञानी नहीं जानते कि ये स्त्रियां मोह दुःख, मृत्यु व नरक का कारण हैं । वह सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित स्त्रियों पर मुग्ध होता है । आरम्भ अत्यन्त कष्ट पाने के बाद वह स्त्रियों का स्पर्श सुख प्राप्त करता है और यही स्पर्श सुख बाद में नरकादि यातनाओं के दण्ड का कारण बनता है। १. आचारांग सूत्र १।२।३।८१ २. तुमं चेव तं सल्लमाहटु जेण सिया तेण नो सिया। वही-१।२।४।८५ ३. लोग विन्तं च णं उवेहाए एए संगे अवियाण ओ । वही १।५।२।१५० ४. अप्पामाओ महामोहे । वही-१।२।४।८५ ५. घीमि लोए पवहिए. ते मो वयंति एयाई आययणाई. से दुक्खाए. मोहाए. माराए. नरगाए नरगतिरिक्खाए. वही- १।६।४।८५. ६. अरत्तं विरत्तं मणि कुंडलं स हिरण्णेव इत्थियाओ परिगिज्झति । वही-१।२।३।८० ७. पुव्वं दण्डा पच्छाफासा पुव्वं फासा पच्छा दण्डा । वही- १।५।४।१६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114