Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 72
________________ श्रमग, अप्रैल-जून, १९९१ इसके साथ ही शास्त्रकार ने गहित-निन्द्य घरों की चर्चा करते हुए लिखा है कि, "जहाँ सरेआम व्यभिचार होता है, वेश्यालय हो, मदिरालय हो, कसाईखाना हो, जिनके आचरण गंदे हों, जो हिंसादि पापकर्म में ही रत हो, ऐसे घर भी भिक्षा के लिए त्याज्य हैं।" जुगुप्सित और निन्दित लोगों के घरों से भिक्षा के लिए जाने से भिक्षु को स्वयं घृणा पैदा होगी, संसर्ग से बुद्धि मलिन होगी, आचार-विचार पर भी प्रभाव पड़ना सम्भव है, लोक-निन्दा भी होगी, आहार की शुद्धि भी न रहेगी और धर्मसंघ की बदनामी भी होगी। जैनों का व्यावहारिक दृष्टिकोण जैन समाज की वर्तमान प्रवृति एवं व्यवहार की ओर ध्यान न देकर यदि जैन मूल सिद्धान्तों को देखें तथा जैन शास्त्रों के उदाहरण संग्रह करें तो स्पष्ट ज्ञात हो जायेगा कि जैन धर्म दूसरे धर्मों की अपेक्षा उदार अधिक रहा है। भगवान् महावीर के शासन में शूद्रों को भी वही स्थान प्राप्त था जो किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को हो सकता है । महावीर के शासन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र को जन्मगत आधार पर कोई महत्त्व ही नहीं दिया गया है । यहाँ तो स्पष्ट लिखा है कि कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो। वइसो कम्मुणा होई, सुद्दो हवई कम्मुणा ।। --उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २५ अर्थात् कर्म से (आचरण-व्यवहार से) ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं (जन्म से कोई ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि नहीं होता)। महावीर के शासन में जन्मगत जाति को तो गौण माना ही गया है, साथ ही यह भी बताया गया है कि यदि कोई शूद्र अपने आचार और व्यवहार को शुद्ध कर लेता है तो वह ब्राह्मणादि के समान हो जाता है । यथा--- “शूद्रोऽप्युपस्काराचारवपुःशुद्ध्यास्तु तादृशः ।" -~-सागरधर्मामृत २/२ जैनाचार्यों के अनुसार चाण्डाल को भी व्रत धारण करने से देवों ने ब्राह्मण कहा है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी शूद्र, अस्पृश्य-शूद्र १. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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