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आगमों में वर्णित जातिगत समता
होते थे, जो लोगों का धन छीन लेते थे। इनके अतिरिक्त लोहकारों को भी कहीं-कहीं घृणा का पात्र माना गया है। यद्यपि इनसे सार्वभौम रूप से घृणा नहीं की जाती थी, पर दक्षिण भारत में इन्हें घृणा का पात्र समझा जाता था। जैन परम्परा में लोहकारों को पूरा सम्मान दिया गया है। मथुरा के अभिलेखों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि अनेक आयागपट्टों और जिन प्रतिमाओं का दान इनके द्वारा दिया गया था, अतः ये लोग समाज में सम्मानित माने जाते थे। शिल्प के आधार पर निर्मित हीन जातियाँ
जैन आगमों में कर्म अथवा शिल्प के आधार पर निन्दित समझे जाने वाले व्यक्तियों का भी वर्णन मिलता है। ये लोग विविध पेशों के आधार पर अपनी जीविका चलाते थे। इनमें नाटक करने वाले (नट), नृत्य करने वाले (नर्तक), रस्सी पर चढ़कर कलाबाजियाँ दिखाने वाले (जल्ल), पहलवानी करने वाले (मल्ल), पंजा लड़ाने वाले (मौष्टिक), विदूषक (बहुरुपिया), कथक (कथावाचक), पानी में तैरने वाले (प्लवक), उछल-कूद करने वाले, रास (स्वांग) रचने वाले, शुभाशुभ शकुन बताने वाले, ऊँचे बाँस पर चढ़कर कलाबाजी अथवा खेल करने वाले, चित्र दिखाकर भीख मांगने वाले, शहनाई बजाने वाले, तम्बूरा बजाने वाले और खड़ताल बलाकर जीविकोपार्जन करने वाले थे। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार" कुछ लोग लक्षण और स्वप्न विद्या के ज्ञाता थे, कुछ निमित्तशास्त्र और कौतुक कार्य में प्रवीण थे तथा कुछेक मिथ्या आश्चर्य को उत्पन्न करने वाली कहेट विद्याओं (जादूगरी) के ज्ञाता थे । वे इन विद्याओं के माध्यम से अपनी जीविका अजित करते थे। इन्हें भी निम्न जातियों में गिना जाता था। वर्णसंकर जातियाँ
जैन ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में कतिपय वर्णसंकर जातियाँ भी विद्यमान थीं। आचारांग नियुक्ति में कुछ १. निशीथचूर्णि, १. पृ० १०० । २. निशीथ चूणि, ४, पृ० १३२ ३. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, अभिलेख संख्या, ३१, ५४, ५५ ४. राजप्रश्नीयसूत्र, १, पृ० ३ ५. उत्तराध्ययनसूत्र, २०१४५, पृ० २११
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