Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 47
________________ ऋग्वेद में अहिंसा के सन्दर्भ डॉ० प्रतिभा त्रिपाठी ऋग्वेद के स्तुतिपरक मन्त्रों में यद्यपि अहिंसा के स्वरूप, भेद-प्रभेदों आदि का विवरण नहीं मिलता तथापि अहिंसाभाव की वर्तमानता में सन्देह नहीं किया जा सकता । ऋग्वेद के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उसमें अनेक अहिंसापरक शब्दों का प्रयोग हुआ है, जैसे अध्वरः, अघ्न्या, अदाभ्यः, अस्तृतः, अरिष्टः, अरिष्यतः, अदन्धः, अस्त्रिधः, अहिंसमानः, अमृक्तः, अहणीयमानः, अघ्नतः, अतूर्तः, अमिनती आदि ।' यद्यपि इन शब्दों से हिंसा या अहिंसा के नैतिक रूप पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है किन्तु अहिंसाभाव की अवस्थिति सिद्ध हो जाती है । ___ ऋग्वेद के हिंसापरक मन्त्रों के आधार पर ऋग्वैदिक ऋषियों पर मात्र हिंसाप्रधान दृष्टि रखने का आरोप वस्तुतः निराधार है। ऋग्वेद के सूक्ष्म अध्ययन से ज्ञात होता है कि वैदिक ऋषि मन, वाणी और कर्म से अनावश्यक हिंसा को निन्दनीय दृष्टि से देखते थे। ऋग्वैदिक मन्त्रों में स्थान-स्थान पर अहिंसापरक दृष्टिकोण हिंसा के इस निषेध बारा ही अभिव्यक्त हुआ है । मन से, वाणी से एवं शरीर से कहाँ हिंसा नहीं करनी चाहिए, इसका स्पष्ट विवेक वैदिक ऋषियों को था और ऐसे सन्दर्भो के सूक्ष्म अध्ययन से ऋग्वेद में अहिंसा के स्वरूप का शाकलन किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से अहिंसा के स्वरूप का अध्ययन मानसिक, वाचिक और कायिक-तीन रूपों में कर सकते ।। इसके अतिरिक्त सह-अस्तित्व एवं आत्मकल्याणार्थ वैदिक ऋषि हिंसा भावना के पक्षधर थे। नसिक अहिंसा । मानसिक शक्ति के अभाव, बुद्धि के विकृत होने पर एवं तामसिक की प्रधानता होने पर मनुष्य हिंसा भाव से युक्त होता है। मन द्रष्टव्य, लेखिका का लेख 'ऋग्वेद में अहिंसावाचक शब्द,' (भाग प्रथम, भाग द्वितीय) मध्यधारा, अंक-२ जून १९८८ एवं अंक ३-फरवरी १९८९,. राका प्रकाशन, इलाहाबाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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