Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 58
________________ ५६ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ अर्थात्-दुष्टतापूर्वक आघात पहुँचाने वाले मनुष्य के बल को नीचे गिरा दो तथा जो शस्त्र से हमारी हिंसा करना चाहता है उस दुष्ट को पैरों के नीचे दबा लो, अर्थात् वध करो। सप्तम् मण्डल के सम्पूर्ण १०४वें सूक्त में राक्षसों की हिंसा करने की प्रार्थता की गयी है जो हिंसा निवारण के लिए अत्यन्त आवश्यक है।' ऋग्वेद के दशम् मण्डल के एक मन्त्र में आततायी के वध द्वारा स्तोताओं की रक्षा करने की ध्वनि प्रस्फुटित होती है-वागाम्भृणी कहती है कि, मैंने ही त्रिपुर विजय के समय शिवजी के धनुष को प्रत्यंचा युक्त किया था। मैं ही स्तोताओं के लिए शत्रुओं के साथ युद्ध करती हूँ और मैं ही द्यावा पृथिवी को व्याप्त करती हूँ। इस मन्त्र में अहिंसा के लिए युद्ध करने की बात कही गयी है। ऋग्वेद में अनेक ऐसे स्थल उपलब्ध होते हैं जहाँ युद्ध करना धर्म का अंग माना गया है। गोधन की रक्षा के लिए युद्ध करना आर्यों का प्रमुख कर्त्तव्य था। गौओं के लिए युद्ध में लड़ने वाले वीरों की सर्वत्र स्तुति की मयी है__ "नकि रेषां निन्दिता मर्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधाः ।"३ हमने अनेक स्थलों पर क्रोध को हिंसा की जननी कहा है, किन्तु किन्हीं विशेष सन्दर्भो में क्रोध का औचित्य भी होता है। जैसे, यदि क्रोध शत्रु पर किया जाय तथा वह मुनि के समान मननपूर्वक एवं विचारयुक्त हो तो वही क्रोध हिंसानाशक भी हो जाता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में अग्नि से प्रार्थना करते हुए कहा गया है, कि स्त्री-पुरुष के झगड़ते समय, स्तोता लोगों के वाक् कलह के समय आप जो क्रोधित होकर बाण छोड़ते हैं उन बाणों से राक्षसों को मारें। इसमें दो बातें स्पष्ट हैं, एक तो उपयुक्त विशिष्ट स्थितियों में कुपित होने का औचित्य और क्रोध के पीछे हिंसकों के हनन रूप शुभ उद्देश्य का भाव तथा दूसरा, आततायी राक्षसगण के वध की प्रार्थना । किंतु इसमें हिंसाभाव नहीं है, क्योंकि अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की १. ऋग्वेद-७।१०४ सम्पूर्ण २. बही १०।१२५।६ ३. वही ३१३९।४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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