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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
६४ प्राचीन जैन ग्रन्थों से हमें यह संकेत मिलते हैं कि उस काल में जैन धर्म के द्वार सभी जातियों और वर्गों के लिए खुले हुए थे। मथुरा के अभिलेखों से भी यही सिद्ध होता है कि लुहार, सुनार, तेली, नाविक यहाँ तक कि वेश्या और नर्तक भी जैन धर्म का पालन करते थे तथा जिन मन्दिर और जिन प्रतिमाएं स्थापित करवाते थे ।
कालान्तर में जब भारतीय समाज में वर्ण और जाति को लेकर ऊँच-नीच की भावनाएं दृढ़ हो गईं और कुछ जातियों को नीच और अस्पृश्य मान लिया गया तो उसका प्रभाव जैन धर्म पर भी पड़ा और प्रकारान्तर से जैनों ने भी कुछ जातियों को जैन मुनि-दीक्षा और भिक्षा के अयोग्य मान लिया गया। सर्वप्रथम स्थांनांग' में जैन मुनि दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों की चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि जंगित अर्थात् जाति या पेशे से घणित माने जाने वाले व्यक्ति को दीक्षा नहीं देना चाहिए। इसी प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों में मुनि को उच्च, निम्न और मध्यम तीनों कुलों की भिक्षा ग्रहण करने के उल्लेख मिलते हैं वहीं परवर्ती साहित्य में विशेषकर चणि आदि में कुछ कुलों को भिक्षा के अयोग्य मान लिया गया था । वस्तुतः यह सब बृहत्तर हिन्दू समाज के प्रभाव का परिणाम था और यह मुख्यतः इसलिए किया गया था कि जैन-मुनि समाज में घृणा का पात्र न बने अथवा उसे घृणित बताकर प्रचारित नहीं किया जा सके । यद्यपि यह जैनधर्म की मूल प्रकृति और श्रमण संस्कृति के विरुद्ध था किन्तु समवर्ती समाज का अनिवार्य प्रभाव था जिसे जैनों ने स्वीकार कर लिया था। आगे हम इसी प्रसंग में कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे। निम्न जातियों का स्तर निर्धारण
जैनग्रन्थोंमें निम्न जातियों के स्तर निर्धारण के कुछ प्रमुख आधार थे। इनमें सर्वप्रथम वे व्यक्ति जो घणित मानी जाने वाली जाति में जन्म लेते थे, जाति जुगित कहलाते थे, दूसरे कर्म जु गित थे, जो अपने निम्न कोटि के कर्मों के कारण घृणित माने जाते थे। तीसरे वे थे, जो निम्न कोटि के शिल्पों का अनुसरण करने के कारण घृणित समझे जाते थे । वस्तुतः कर्मजु गित और शिल्पजु गित दोनों प्रायः पेशे के कारण ही घृणित समझे जाते थे।
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