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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
"सक्तुमिकः तितडना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत । अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीनिहिता धिवाचि ॥" अर्थाद-जैसे चलनी से सत्तू को स्वच्छ कर लेते हैं, वैसे ही बुद्धिमान, श्रेष्ठ पुरुष बुद्धि बल से वाणी को प्रस्तुत करते हैं (उस समय) तथा जो प्रेमभाव से युक्त ज्ञानी लोग मित्रता के भावों को जानते हैं, उनकी वाणी में कल्याणकारक मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती हैं। इसी प्रकार अग्नि से स्तुति करते हुए वैदिक ऋषि कहता है-जो दूसरों की निन्दा करने वाले अशिव, अभद्र थे. इस समय तुम्हारी सेवा करके (शिवा) सब प्रकार से कल्याणमय हो गए हैं। सम्यक् आचरण वाले मुझको जो कटूक्तियों से निन्दित करते हैं, ऐसे मेरे शत्रु स्वयं वाणी से नष्ट हो गए ।२ वैदिक ऋषि अग्नि से द्रोह करने वाले, निन्दा करने वाले और परिवाद करने वाले से रक्षा करने की प्रार्थना करता है।
"दहाशसो रक्षसः पाह्यश्स्मान्दुहो निदो मित्रमहो अवद्यात् ॥"३
ऋग्वेद में परुषवचन के लिए "मृधवाचः" तथा असत्यवचन के लिए "द्रोधवायः" शब्द प्रयुक्त हुए हैं। परुष भाषण के प्रति वैदिक ऋषियों की निषेधात्मक दृष्टि थी तथा ऐसे हिंसापरक वचन बोलने वाले के लिए देवताओं से दण्ड देने की प्रार्थना की गयी है। सप्तम् मण्डल में अग्नि से कठोर भावी राक्षसों को मारने की प्रार्थना की गयी है। __ "जरूथं हन्" सायण ने अपने भाष्य में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है
"जरूथं परुषभाषिणं जरणीयं वा रक्षोगणं हन् जति ।" षष्ठ मण्डल में भी कहा गया है
य ई राजानावृतुथा विदधद्रजसो मित्रो वरुणश्चिकेतत् ।
गम्भीराय रक्षसे हेतिमस्य द्रोधाय चिद्वचस आनवाय ॥ १. ऋग्वेद-१०७१।२ २. ऋग्वेद-५।१२।५ ३. ऋग्वेद-१०१२३१५ ४. ऋग्वेद-७।९।६ ५. ऋग्वेद--६।६२।९
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