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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
की जो शत्रु हिंसा करना चाहता है उसके प्रति भी दुष्ट निन्दायुक्त भाषण करने से डरता हूँ और आपकी सेवा में रत रहना चाहता हूँ ।
उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि वेदकालीन ऋषि परुषभाषी को निन्दा की दृष्टि से देखते थे और ऐसे दुष्टों को ईश्वर से दण्ड देने की प्रार्थना करते थे। ऐसी प्रार्थनाओं में प्रकारान्तर से अहिंसा भावना ही अभिव्यक्त हुई है ।
कायिक अहिंसा
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वस्तुतः अहिंसा का स्वरूप निषेधात्मक है । हिंसा का अभाव ही अहिंसा है । अत: अहिंसा की चर्चा करने से पहले हिंसा का वर्णन करना नितान्त आवश्यक है । ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि तामसी वृत्ति के अधीन होकर किसी को शारीरिक कष्ट देना, अंग-भंग करना, प्राण हरण करना कायिक हिंसा का क्षेत्र है । हिंसा में तीन क्षेत्र महत्त्वपूर्ण हैं - १. हिंस्य - जिसकी हिंसा होती है, २. हिंसक - जो हिंसा करता है, तथा ३ हिंसा के कारण । इन तीनों तथ्यों के समावेश से हिंसा की स्थिति उत्पन्न होती है और हिंसक हिंसा करने की ओर उन्मुख होता है ।
इसके विपरीत हिंसा का अभाव अथवा निवारण ही "अहिंसा" है । मानसिक, वाचिक, कायिक रूप से किसी को भी पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है । कायिक अहिंसा के अन्तर्गत "अहिंसा" का साक्षात् सम्बन्ध शरीर से होता है । सामान्य रूप से शरीर के अंग-विशेष से किसी के शरीर को पीड़ा न पहुँचाना कायिक अहिंसा है ।
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ऋग्वेद में कतिपय ऐसे स्थल आए हैं जहाँ शारीरिक हिंसा वर्जित की गयी है । शारीरिक हिंसकों के लिए अत्रिणः १, रिपुः २, रिषः यातुधान, राक्षस आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इन्हें महापापी कहा गया है । ज्ञान से द्वेष करने वाले, यज्ञ न करने वाले, सत्कर्म न करने
१. ऋग्वेद – १।२१।५, १३६।१४
२ . वही १।३६।१६
३. वही ६।६३।२
४. वही ७।१०४।१५, १६, २४
५. वही ७।१०४॥४, २१
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