Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 45
________________ ४३ कर्मबन्ध का तुलनात्मक स्वरूप कर्म अवश्य करे क्योंकि कर्म जीवन की धुरी है किन्तु यथाशक्ति निष्काम या रागद्वेषादि रहित कार्य करे । कर्म के स्वरूप, भेद, बन्ध, भोक्तृत्व, कर्तृत्व आदि के सम्बन्ध में दर्शनों में अन्तर है किन्तु कर्म के महत्त्व, बन्धनरूप मानने, जीवन निर्माणतत्त्व की कल्पना, निष्काम कर्म, बन्धमुक्ति की अनिवार्यता आदि तथ्यों में समानता भी प्रतीत होती है । आर्हत दर्शन में कर्मबन्ध की प्रक्रिया मौलिक, सुसम्बद्ध एवं अन्य भारतीय दर्शनों से अधिक सूक्ष्म और विश्लेषणपरक है। वे आस्रव एवं बन्ध के रूप में कर्मपुद्गलों से जीवसंयोग के दो चरण मानते हैं और भाव एवं द्रव्य दोनों दृष्टियों से कर्मबन्ध को व्याख्यायित करते हैं। अद्वैत वेदान्त मे जो स्थान माया और अविद्या का है, वही स्थान जैनमत में कर्मो का है । अनेक समानताओं, असमानताओं एवं विशिष्टताओं के होते हुए भी प्रमुख भारतीय दर्शनों में कर्मबन्ध के विषय में भावगत साम्य मिलता है । शोधछात्रा, संस्कृत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल (यू० पी०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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