Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 37
________________ कर्मबन्ध का तुलनात्मक स्वरूप में प्रविष्ट होना या संलग्न हो जाना "बन्ध" कहलाता है । जैसेशरीर में तेल का पुता होना आस्रव और तेल से पुते शरीर में धूल का जम जाना बन्ध कहा जा सकता है । बन्ध के चार भेद हैं -प्रकृति स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । प्रकृतिबन्ध में मुख्यतः आठ प्रकार के कर्म आते हैं। ये कर्म हैं ~ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय(तत्त्वार्थसूत्र ८१५)। फल के अनुरूप ही कर्मों के नाम रखे गये हैं । इनके ज्ञान एवं दर्शन का आवरण करने वाले, नामआयु, जात्यादि निर्धारित करने वाले विविध कर्म हैं। जैन ग्रन्थों में इनके अनेक भेदोपभेदों का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्तिथिबन्ध में कर्मपुद्गलों के साथ जीव के रहने का समय, अनुभागबन्ध में कर्मों का फलभोग एवं प्रदेशबन्ध में आत्मा और कर्म के प्रदेशों के परस्पर संयुक्त होने की प्रक्रिया उल्लिखित है। जैन विचारकों ने आस्रव, बन्ध एवं कर्म का भाव और द्रव्य, दोनों दृष्टियों से विवेचन किया है; यथा-किसी कार्य की सिद्धि के लिए मस्तिष्क में आने वाला विचार या संकल्प ही भावकर्म या सूक्ष्मकर्म कहा जाता है। कार्य सम्पन्न होना स्थूल रूप में द्रव्यकर्म कहलाता है । काम-क्रोध-लोभादि कषायजन्य मन-वचन-देह की चेष्टाओं से कर्मबन्ध होता है । जैनसम्मत कर्मपरम्परा स्वतन्त्र, स्वाधीन एवं अपना फल देने में समर्थ है। बौद्धों ने कषायप्रेरित कर्मों को बन्धन का कारण माना है। मानसिक-वाचिक-कायिक, तीनों प्रकार के कर्मविपाक द्वादश-निदान के अन्तर्गत आते हैं वैभाषिकों ने कर्म के दो भेद बताए हैं-चेतना और चेतनाजन्य । "चेतना" में मानसिक कर्मों का एवं "चेतनाजन्य" में वाचिक और कायिक कर्मों का अन्तर्भाव होता है। चेतनाजन्य कर्म भी दो प्रकार के होते हैं-विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति। जिन कर्मों का फल प्रकट १. तत्त्वार्थसूत्र ६।१-२ और ८।३ २. प्रवचनसार, अंग्रेजी, भूमिका पृ० ४३ ३. प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः-तत्त्वार्थसूत्र ८।४ ४. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धनहेतवः-वही ८।१ 4. Outlines of Jainism (Cambridge Uuiversity Press) pp. 3-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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