Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ १ सम्बद्ध होने के कारण ही इन्हें प्राणियों की मूल प्रवृत्ति या स्थायीभाव कहा जाता है । पहले कषायोत्पत्ति, तदनन्तर मानसिक- वाचिक - कायिक चेष्टायें स्थूल रूप में सभी को मान्य हैं । कर्मवाद के सिद्धान्तानुसार कृतप्रणाश ( कृतकर्म का फल नष्ट होना ) तथा अकृताभ्युपगम ( न किए कार्य का फल ) नहीं होता है । योगशास्त्र ( द्वितीय प्रकाश - ३० ) में कहा गया है कि उग्र पाप की तरह उग्र पुण्य का फल भी इसी जन्म में मिल सकता है | योगदर्शन में तीव्र संवेग से किए जाने वाले कर्मों को तत्काल फलदायी स्वीकार किया है । भारतीय दर्शनों में कर्मों के फलित होने की व्यवस्था के विषय में मतभेद होते हुए भी उनकी फलभोग कराने की क्षमता के विषय में मतवैभिन्य नहीं दिखायी देता । कर्म अनिवार्यतः फल देते हैं, चाहे स्वयं फल दें या ऋत, अदृष्ट, अपूर्व, आशय, संस्कार या धर्माधर्म के माध्यम से फलित हों । कर्मसंस्कार भोग देने के बाद नष्ट हो जाता है । भोग करते समय ही जीव पुनः कर्मसंस्कारों को अर्जित करता जाता है । कषायमूलक होने से पाप के साथ-साथ पुण्य भी बन्ध का कारण कहा गया है, किन्तु पुण्य या शुभ कार्य मनः शुद्धि में सहायक भी होते हैं । पाप से पुण्य में प्रवृत्ति और धीरे-धीरे दोनों से निवृत्ति होने से पुण्य को परम्परया मोक्षसाधक माना जाता है । व्यावहारिक जीवन में देखा जाता है कि शुभ या सर्वकल्याणकारी कार्य करने वालों को सुख, सम्मान और यश मिलता है, परन्तु अनेक कारणों से ( रागद्वेषादिमूलक होने पर । कालान्तर में सुख भी परिणामतः दुःखदायी हो जाता है । ४० प्रमुख भारतीय दर्शनों में बन्ध के विषय में भागवत साम्य प्रतीत होता है, किन्तु कर्मभेद इत्यादि में अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार भेद भी स्पष्ट हैं । न्याय, वैशेषिक, योग आदि कुछ दर्शन कर्म को ईश्वराधीन स्वीकार करते हैं । जीवफल तो कर्मानुसार ही पाते हैं किन्तु कृतकर्मों से उत्पन्न अदृष्ट या पापपुण्यानुसार ईश्वर जीवों को सुख-दुःख रूप फल देता है एवं मुमुक्षु की लक्ष्य प्राप्ति में सहायता करता है । जैन, बौद्ध, सांख्य एवं मीमांसा जैसे निरीश्वर दर्शन कर्मनियामक और १. योगसूत्र २।१२ पर व्यासभाष्य २. (क) न्यायसूत्र ४।१।२१, योगसूत्र १।२३ - २७ सव्यासभाष्य, गीता १८/६१ (ख) ब्रह्मसूत्र २।१।३४ पर शाङ्करभाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114