Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 41
________________ कर्मबन्ध का तुलनात्मक स्वरूप होकर ही प्राणी क्रियाशील होता है--कर्महेतुः कामः स्यात् । इससे संसार चक्र चलता है। वस्तुतः अविद्या ही बंधन है क्योंकि अविद्यामूलक विचारों के कारण प्राणी संसार को सत्य समझ बैठता है। बंधन में पड़ने पर आत्मा अपना वास्तविक रूप ( ब्रह्मत्व ) भूलकर भद्र, दुःखी जीव बन जाता है । क्षणिक विषयासक्ति के कारण उसे विषय मिलने पर प्रसन्नता एवं न मिलने पर खेद होने लगता है। अहंभाव ( मैं ) की उत्पत्ति से स्वयं को संसार से पृथक् मानने लगता है। अद्वैत वेदान्तियों द्वारा समस्त प्रपञ्च को ब्रह्म में अध्यस्त स्वीकार करने के कारण 'अहं' शुद्धात्मभाव न होकर केवल अविद्याकृत बन्धन है । अहंभावमूलक न होने से जीवन्मुक्त की क्रियायें कर्म नहीं कहलातीं। अच्छे-बुरे काम के फलस्वरूप सुख-दुःख मिलते हैं। सुखप्राप्ति एवं दुःख दूर करने के लिए पुनः क्रिया करता है जिससे पुनर्जन्म के चक्र में पड़ता है। सारा संसार चरित्र, भाग्यादि कर्मों से निश्चित है। पूर्वकृत कर्मफल होने से इसे ईश्वर का न्यायान्याय कहना उचित नहीं कहा जा सकता । वेदान्तदार्शनिक व्यावहारिक दृष्टि से पाप-पुण्य का भेद अन्य विचारकों की तरह ही स्वीकार करते हैं । चित्तशुद्धि एवं आत्मसाक्षात्कार के साधक कार्य पुण्य और इससे विपरीत कर्म पाप हैं। द्वैतवेदान्त में कर्म को पापपूण्य का असाधारण कारण बताया गया है। यह मुख्यतः तीन प्रकार का है - विहित, निषिद्ध एवं उदासीन । इन तीनों के भी अनेक भेदोपभेद स्वीकृत हैं। ईश्वर, जीवादि चेतनों में होने वाले कार्य नित्य और देहादि अनित्य वस्तुओं में होने वाली चेष्टायें अनित्य कही जाती हैं । प्रायः सभी भारतीय विचारक बन्धन के स्वरूप के विषय में एकमत हैं । आसक्ति बन्धन की जड़ है। कषायमूलक कर्म अवश्य ही शुभाशुभ फल देते हैं । ये फल अवश्य भोगने पड़ते हैं। प्राणीमन से सम्बद्ध होने के कारण मनोविज्ञान और साहित्य में भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, रति, अरति आदि को मूलप्रवृत्तियों, संवेगों एवं स्थायी भावों के रूप में स्वीकार किया गया है। दर्शनजगत् में ये सांसारिक आवागमन के कारणों के रूप में मान्य हैं । सम्भवतः संसारी जीवों से अनादिकाल से . 1. The Six Systems of Indian Philosophy, Max Muller P. 171 २. भारतीयदर्शन, उमेश मिश्र पृ० ४४०, ४४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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