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अन्य प्रमुख भारतीय दर्शनों एवं जैन दर्शन में कर्मबन्ध का तुलनात्मक स्वरूप
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- कु० कमला जोशी प्रायः समस्त भारतीय अध्यात्म जगत् में कर्म और बन्धन की चर्चा मिलती है । बन्धन का अर्थ है - संसार चक्र में पड़ना, जन्म ग्रहण करना, शरीर-मन-प्राण - इन्द्रियादि से सम्बन्ध होना एवं सुख-दुःख भोगना । प्रायः सभी विचारकों ने आत्मा को मूलतः शुद्धरूप में स्वीकार किया है । रागद्वेषासक्तिमूलक कर्म और उसके परिणामस्वरूप प्राप्त बन्धन ही जीव को अनेकानेक सांसारिक दुःखों की बेड़ी में जकड़ कर उसके निर्मल स्वरूप को मलिन करते हैं । वस्तुतः रागादिमूलक कर्म ही वास्तविक बन्धन हैं । कर्म के अच्छे या बुरे होने से ही जीव को अच्छी या बुरी योनियों में देहेन्द्रियादि और भोग मिलता है । प्राणी को स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का फल अनिवार्यतः भोगना पड़ता है । अच्छे कर्म का परिणाम शुभ और बुरे कर्म का परिणाम अशुभ होता है । कर्म के सर्वमान्य होने पर भी दार्शनिकों ने अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार इसका वर्णन किया है । प्रस्तुत लेख में प्रमुख भारतीय दर्शनों के अनुसार कर्म-बन्ध सम्बन्धी विचारों पर संक्षिप्त तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए जैनमत की विशिष्टता पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा है ।
मूल तत्त्वों को जानने से मोक्ष मिलता है एवं मूल तत्त्वों के विकृत रूप में निष्ठा से प्राणी बन्धन में पड़ा रहता है । गीता ( ३।५ ) के १. ( क ) सांख्यकारिका १, शास्त्रदीपिका पृ० १२५, प्रकरणपञ्चिका पृ० १५६; (ख) तत्त्वार्थ सूत्र ८।२ और ३
२. ( क ) धम्मपद १४|५, तत्त्वार्थसूत्र १1१- २ (ख) न्यायसूत्र १1१1२, वैशेषिक सूत्र १।१।२ और ४, सांख्यकारिका - ६७ ; ( ग ) ब्रह्मसूत्र१|१|४; बृहदारण्यकोपनिषद् —– ३।३।१; एवं गीता १८८५५
शाङ्करभाष्य
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