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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
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विकास क्रमशः हुआ है । ऐसी सम्भावना की जाती है कि साहित्य - जगत् में रचनाक्रम के अनुसार, विवेकमञ्जरी वृत्ति पहली और उपदेशकन्दली - वृत्ति दूसरी कृति मानी जा सकती है । तत्पश्चात् एक नाटककार के रूप में बालचन्द्रसूरि प्रस्तुत हुए होंगे । नाटक की प्रौढ़ तथा परिमार्जित भाषा-शैली व जैनधर्म के आचरण से परिपूर्ण कथावस्तु को देखते हुए, इसे वृत्तियों के बाद की रचना कहा जा सकता है ।
वसन्तविलास महाकाव्य आचार्य पद प्राप्ति के बाद की रचना है और यह उनकी अन्तिम कृति है । इसके पूर्व की कृतियों में " सूरि" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है । इस महाकाव्य में उन्होंने अब तक प्राप्त समस्त अनुभवों का पूर्णरूपेण प्रयोग किया है । इसमें करुणा-वज्रायुध जैसी हठधर्मिता दृष्टिगोचर नहीं होती है । साहित्यिक दृष्टि से यह कवि का सर्वश्रेष्ठ जीवन पुष्प है । काव्यशास्त्रीय समस्त लक्षणों से परिपूर्ण वसन्तविलास महाकाव्य निश्चय ही बालचन्द्रसूरि के अमरत्व का प्रतीक है ।
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संस्कृत - विभाग भवन्स मेहता महाविद्यालय भरवारी, इलाहाबाद ( उ०प्र० )
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