________________
श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ था। जैनेतर साहित्य में भी प्रस्तुत कथा रूपान्तर से प्राप्त होती है। महाभारत के वनपर्व में शिवि और कपोत की कथा तथा बौद्धजातक संख्या ४९९ की कथा उसी प्रकार की है।
इस नाटक का कथानक क्षेमकर जिनाधिप के पुत्र राजा वज्रायुध से सम्बन्धित है। वह चतुर्दशी के पौषधव्रत को पूर्ण करके पौषधशाला में पुरुषोत्तम नामक मंत्री के साथ-"जैन धर्म ही एकमात्र धर्म है। जिससे स्वर्ग, अपवर्ग और समृद्धि प्राप्य है"--वार्तालाप कर रहा था। विदूषक चार्वाक धर्म की श्रेष्ठता बतलाते हुए हास्य रस का सृजन करता है। इसी समय नेपथ्य में “बचाओ, बचाओ, की ध्वनि सुनायी पड़ती है। श्येन द्वारा अनुगमित कपोत राजा की क्रोड में आ गिरा और प्राण-रक्षा की याचना की। राजा ने श्येन के वक्तव्य को अस्वीकार कर दिया। श्येन ने कहा- 'आप सापत्न्य व्यवहार करते हए कपोत की रक्षा कर रहे हैं और मुझे मार रहे हैं । राजा स्वयं शारीरिक मांस देने के लिए उद्यत होता है और तराजू में जा बैठता है। आकाश-ध्वनि होती है, श्येन और कपोत देव रूप में प्रकट होते हैं । राजा का शरीर स्वस्थ हो जाता है और देवगण उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। __ प्रस्तुत नाटक वस्तुतः जैनधर्म के प्रचार और प्रसार हेतु लिखा गया है। इसमें अभिनय कम, संवाद की अपेक्षा कविताएं अधिक है। इसमें कल १३७ श्लोक हैं। अधिकांश भाग, धार्मिक वाद-विवाद के रूप में है। विष्कम्भक पर्याप्त विस्तृत है। इसमें जैनधर्म की प्रशंसा और वैदिकधर्म की निन्दा अधिक है। (३) विवेकमञ्जरीवृत्ति
जैनमहाराष्ट्री प्राकृत में रचित १४४ श्लोकों की एक कृति है, जिसको आसड कवि ने वि० सं० १२४८ (११९२ ई०) में लिखा था। प्रथमतः महावीर स्वामी का स्तवन, तदनन्तर विवेक-माहात्म्य पर १. एकं जैनं विना धर्ममन्ये धर्माः कुधीमताम् ।
संवृता एव शोभन्ते पटच्चरपटा इव ।। -करुणा वज्रायुध, श्लोक ४० २. किमयं सोदस्तेऽहं सापत्नेयः कथं नृप । __ यदेनं त्रायसे मां तु म्रियमाणमुपेक्षते ।। -करुणावज्रायुध, श्लोक ९८;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org