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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
मण्डल में व्याप्त है - इसी मन्त्रराज का योगियों को ध्यान करना चाहिए | इसे ही विभिन्न आचार्य विभिन्न रूपों से कहते हैं - कुछ बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा, महेश्वर शिव, सार्व व ऐशान कहते हैं । इस मन्त्र रूप शरीर को ग्रहण करके ही सर्वत्र, सर्वव्यापी व शान्ति जिनदेव ही साक्षात् अवस्थित हैं । इससे संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाता है ।
इस पदस्थ ध्यान दृष्टि की भी ज्ञानार्णव में योग-साधना के निमित्त प्रक्रिया बताई है । तत्पश्चात् प्रणव से इसे समायोजित कर इसका विवेचन किया गया है। मुनि शुभचन्द्र ने इसी प्रकरण में अनेक मन्त्रों का भी उल्लेख किया हैं । यहाँ केवल दो का निर्देश करना समीचीन है : सप्ताक्षरी मन्त्र 'ॐ' श्रीं ह्रीं 'अहं' नमः' के सम्बन्ध में मुनि श्री का कथन है :
सकल ज्ञान साम्राज्य मन्त्रं जगत्त्रयी नाथं ओं श्रीं ह्रीं अहं नमः ।
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दान दक्षं विचिन्तय । चूडारत्न कृतास्पदम् ||
यह मन्त्र केवल ज्ञान का वैभव देने में समर्थ है । इसी प्रकार 'ॐ' नमोऽर्हन्ते केवलिने परम योगिने विस्फुरदुरुशुक्ल ध्यानाग्नि निर्दग्ध कर्मबीजाय प्राप्तानन्त चतुष्टाय सौम्याय शान्ताय मंगल वरदाय अष्टादशदोष रहिताय स्वाहा' - यह मन्त्र प्राणियों को निर्भय - अभय कर कष्ट समूह का नाशक है । आगे चलकर वे पुनः 'ॐ' अर्हन्मुख कमलवासिनि पापात्मक्षयंकरि श्रुतुज्ञान ज्वाला सहस्र प्रज्वलिते सरस्वति मत पापं हन हन दह दह क्षौं क्षीं क्षू क्षे क्षोक्षः क्षीर वरधवलेs मृत । सम्भवे वं हूं हूं स्वाहा पापभक्षिणी, सरस्वती का मन्त्र है ।
वर्तमान समय में युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अर्ह की व्याख्या करते हुए अपने ग्रन्थ अर्हम् में लिखा है- 'अहं विद्यमान शक्तियों को बढ़ाने का मन्त्र है । हम इस मन्त्र के माध्यम से प्राण शक्ति का अनुभव करें कि हम कमजोर नहीं हैं - हम दीनहीन नहीं हैं, हम शक्ति सम्पन्न हैं और अपनी शक्ति का उपयोग प्रत्येक क्षेत्र में कर सकते हैं। पहली बात है अर्हता का बोध होना, अर्हता का अनुभव होना । मानव शरीर में अर्हता के कुछ केन्द्र हैं - उनमें सबसे बड़ा है मस्तिष्क । अर्हम् हमें निश्चय पर पहुँचाता है - निश्चय पर पहुँचने में सहयोग करता है ।' युवाचार्य महाप्रज्ञ ने अर्हम् के उच्चारण की भी मीमांसा की है। 'अ’
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