Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ की भांति वर्तुलाकार रहता है। अन्त में श्री जयसिंहसूरि ने नाद, बिन्दु, कला व लय की साधना का स्रोत भी अर्ह को बताया है (संदर्भ सिंघी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, २००५ ।) इस स्तव की विशेषता इसकी स्याद्वाद शैली है-यह कलारहित-कलासहित, मूर्त-अमूर्त, व्यक्तअव्यक्त, निर्गुण-सगुण सर्वव्यापी-देशव्यापी, नित्य-अनित्य आदि है। श्री सिंहतिलकसूरि ने श्री मन्त्रराजरहस्य के अन्तर्गत अर्ह की व्याख्या की है। उनके अनुसार 'अ' शब्द ब्रह्म का सूचक है, रेफ रत्नत्रय का और चन्द्रकला सिद्धि पर को बताता है। बिन्दु अनाहतनाद रूपी अरिहंत है। यथा आद्यं हान्तं शब्दब्रह्मो/घो 'र' तस्त्रिरत्न युतम् । चन्द्र कला सिद्धि पदं बिन्दु निमोऽनाहतःसोऽर्हन् । मातृकाओं के आधार पर 'अ' माभिकमल का प्रथम वर्ण, ललाट कमल का अन्तिम वर्ण 'ह', हृदय कमल का मध्य 'म्' मिलकर अर्ह होता है। अर्ह ही आत्मा है। रेफ व रकार रत्नत्रय को प्रतिपादित करते हैं-इसी से स्वात्मा परमात्मा बन जाता है-यही अरिहंत की साक्षात् सर्व वर्णमय मूर्ति है। सुषुम्ना में इसका ध्यान सर्वांगम का ज्ञानी बनाता है। यह मन्त्रराज सभी आधि-व्याधि को नष्ट करता है। इसकी चिन्तन-पद्धति के लिए श्री मन्त्रराज रहस्य कहता है कनक कमल गर्भे कणिकायां निषण्णं विगत तमसमअर्ह सान्द्रचन्द्रांशुगौरम् गगनमनुसरन्तं सचरन्तं हरित्सु स्मर जिनपति कल्पं मन्त्रराजयतीन्द्र इति सर्वत्रगं ध्यायनहमित्येक मानसः ___ स्वप्नेऽपि तन्मयो योगो किञ्चिदन्यत्र पश्यति ॥ हे मुनि ! अज्ञान रूपी अन्धकार रहित घन एवं चन्द्ररश्मियों जैसा गौर वर्ण कांति युक्त, साक्षात् जिनपति सदृश मन्त्रराज अर्ह सुवर्ण कमल के मध्य में आसीन है। इसी का प्रथम चिन्तन कर तत्पश्चात् वह सभी दिशाओं में संचरण कर आकाश में व्याप्त हो जाता है । अर्ह का एकाग्रचित से ध्यान एवं उसमें लीन होकर साधक स्वः में भी सर्वत्र यही देखता है। श्री रत्नचन्द्र विरचित मातृकाप्रकरण में भी अर्ह की व्याख्या मिलती है। वे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 114