Book Title: Sramana 1991 04 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 6
________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ है, उसी प्रकार महात्मा चौंतीस अतिशय को जानकर, समस्त दिशाओं को आलोकमय करता है-कर्म कलंक शान्त हो जाते हैं और अरिहंत के साथ आत्मा अभेद हो जाता है--'अर्हदभिन्नं अहिं कारेण सर्वतोवेष्टितमात्मानं ध्यायेत्' । अर्ह तात्त्विक मंत्र है। इससे यही हमारे लिए प्रणिधेय है-आत्मोत्कर्ष का साधन' । श्री हेमचन्द्राचार्य ने योगसूत्र के अष्टम प्रकाश में--एवं अर्ह, अर्ह और है का विवेचन किया है । उसे देखें-- पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् चतुर्था ध्येयमाप्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः (८-८-८) पिंडस्थ ध्येय में पांच धारणाएं होती हैं--पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी तत्त्वती । इन समस्त धारणाओं में अर्ह का ध्यान ही व्याख्यायित है । पदस्थ ध्यान के लिए-- यत्पदानि पवित्राणि, समालम्ब य विधीयते । तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्त पारगैः । प्रभावी मन्त्राक्षर आदि पवित्र पदों का आश्रय लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। यही मातृका ध्यान है, जिसके फलस्वरूप अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसी प्रकरण में निम्न श्लोक भी ध्यातव्य है अकारादिहकारान्तं रेफ मध्यं स बिन्दुकम् तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्त्ववित् (ज्ञानार्णव-१९३४) महत्त्वमिदं योगी यदैवध्यायति स्थिरः तदैवानन्द सम्पद भूः मुक्तिश्रीरुप तिष्ठते अर्थात् अकारादि आदि में, हकार अन्त में और बिन्दु सहित रेफ मध्य में है वही अर्ह है—जो इसे जान लेता है वही वस्तुतः तत्त्वज्ञ है। जो योगी चित्त को स्थिर कर महातत्त्वरूपेण अहं का योग करता हैउसके समक्ष आनन्द रूप सम्पदभूमि के समान मोक्ष की स्थिति होती. है । रूपस्थ ध्यान के अभ्यास से योगी सर्वज्ञ हो जाता है- उसे परमतत्त्व से अभेदत्व होता है-यही सर्वज्ञ भगवान् में तन्मयता है योगीचाभ्यास योगेन तन्मयत्वमुपागत सर्वज्ञी भूतमात्मानम् अवलोकयति स्फुटम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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