Book Title: Sramana 1991 04 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 7
________________ अहँ परमात्मने नमः इस ध्यान से सभी कषाय समाप्त हो जाते हैं और उसकी आत्मा स्फटिक के समान निर्मल हो जाती है। रूपातीत ध्यान अमूर्त, निराकार चिन्दानन्द रूप, निरंजन सिद्ध का ध्यान है। इससे साधक ध्येय और ध्याता के भाव से परे तन्मयता प्राप्त करता है। एकीकरण और यही प्रसिद्ध समरसी भाव है। इन समस्त ध्यानों अपायविचय (ध्यान में उद्भूत राग, क्रोध, द्वेष, विषय एवं तज्जन्य दुःख आदि का चिन्तन) धर्म ध्यान कहलाता है। इस प्रकार इन चारों ध्यानों से अर्ह की साधना पूर्ण कर मुनि जगत के तत्वों का साक्षात् अनुभव ज्ञान उपलब्ध कर आत्मा की शुद्धि करता है। अपाय विचय के साथ-साथ विपाक विचय, संस्थान विचय आदि की व्याख्या की है। इन दो ग्रन्थों के अतिरिक्त द्वयाश्रय महाकाव्य में भी श्री हेमचन्द्राचार्य ने अहं के मंगलाचरण से ही महाकाव्य का प्रारम्भ किया है। वह इस प्रकार है __ अर्ह मित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्राणिदध्महे ।। __इस मंगल पद में अर्ह अक्षर ( बीज ) ब्रह्म, परमेष्ठि का वाचक, सिद्ध चक्र का श्रेष्ठ बीज है-इसका प्रणिधान करना चाहिए। 'श्री अभयतिलकगणि ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है। अर्ह वर्ण समुदाय है---अ++ह.+अ+म। इस श्लोक में ब्रह्म से तात्पर्य अक्षर ब्रह्म से ही ग्रहीत है व ब्रह्म का अर्थ परम ज्ञान स्वरूप लिया है । श्री जयसिंहसूरि द्वारा रचित धर्मोपदेशमाला के अन्तर्गत अहँ अक्षर तत्त्व स्तव उपलब्ध है। 'अ' तत्त्व समस्त प्राणियों को अभय करता है, इसका आश्रय कंठ स्थान है। यह समस्त वर्गों में अग्रगण्य है और सभी व्यंजनों में स्वतः विद्यमान है। आकाश की भांति यह सर्वव्यापी है। '' तत्त्व का स्थान मस्तक में है और यह अग्नि सदृश है। यह त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम को उपलब्ध करता है-यह अत्यन्त पवित्र और मांगलिक है । 'ह' का स्थान हृदय है और सभी वर्गों के अन्त में होकर कला रहित-कला सहित रूप में महाप्राण की भाँति पूजित है-यह सर्व कार्य साधक है। बिन्दु नासिका के अग्रभाग में अवस्थित है और सभी जीवों का मोक्ष प्रदाता है । 'ह' कार के शीर्ष में जल कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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