Book Title: Sramana 1991 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 9
________________ अहैं परमात्मने नमः आधुपान्त्यान्तिमार्हन्तो गीश्च 'अर्ह' पदमास्थिताः ज्ञान दर्शन चारित्र मुक्तयो भान्ति तत्रवा अ र् हँ ।। इसके अनुसार 'अ' ज्ञान, 'र' दर्शन और 'ह' चारित्र का प्रतिपादन करता है-इस त्रिरत्न का सुफल मुक्ति है। उपर्युक्त आचार्यों के अतिरिक्त भट्टारक श्री सकलकीति रचित तत्त्वार्थसारदीपक के ध्यान प्रकरण में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और ध्यान का विशद विवेचन है। इसके अनुसार अर्ह जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त करता है और उसमें जैसे अमृत निरन्तर झरता रहता है। यह सर्व सुखों की उपलब्धि का सबल हेतु है। श्री सकल. कीर्ति ने इसके ध्यान की पद्धति का भी विवेचन किया है। उनके अनुसार सभी अवस्थाओं में अर्ह का निरन्तर जप करना चाहिए । मत्वेतीदं महत्तत्वमर्ह नामोद्भवं बुधाः विश्वकल्याणतीर्थेशं, श्रीदायन्तु मुक्तये ।। सर्वावस्थासु सर्वत्र जपन्तु वा निरन्तरम् विशुद्धे मानसे मन्त्रं निश्चलं स्थापयन्वा ॥ इस संक्षिप्त निबन्ध में अहं का सर्वांगीण विवेचन सम्भव नहीं है। जैन दर्शनाचार्यों ने विविध रूपेण इसका माहात्म्य स्पष्ट किया है। यहाँ पर मुनि शुभचन्द्र रचित ज्ञानार्णव का भी उल्लेख करना अभीष्ट है। पदस्थध्यानम्प्रकरण में उन्होंने मन्त्रराज की व्याख्या की है। अथ मन्त्र पदाधीशं सर्व तत्वैकनायकम् । आदि मध्यान्त भेदेन स्वर व्यंजन संभवम् ।। ऊर्ध्वाधोरेफ संरुद्धं सकल विन्दु लाँध्वितम् अनाहत युतं तत्त्वं मन्त्रराज प्रचक्षते। (१९१८-१९१९) मुनि शुभचन्द्र कहते हैं कि यही तत्त्व सब मन्त्रों का अधिपति है, अद्वितीय नायक, आदि, मध्य, अन्त के भेद से स्वर-व्यंजन से उत्पन्न रेफ से रोका गया, कला संयुक्त, बिन्दु से चिह्नित और अनाहत बीजाक्षर से युक्त है-यही मन्त्रराज है। इसे ही देवासुर नमस्कार करते हैं—यही मिथ्या ज्ञानरूप अन्धकार का नाशक है-सूर्य के सदृश ज्योति सम्पन्न और शीर्ष भाग में चंद्र रश्मियों से मण्डित दिक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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