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प्राकृत व्याकरण
(सेतुबन्धम् - - पा० स० म० ) अंगारअ ( गाथा सप्तशती) अंगाराअन्त ( गौडव हो ) -- देखिए पिशल । प्राकृत प्रकाश में (सूत्र नं० 12 से 17 ) इकार सम्बन्धी परिवर्तनों में भी इसी प्रकार की अव्यवस्था पायी जाती है । परिवर्तन का क्रम है -- इ = ए, अ, उ ओ अथवा उ और ई ।
और
वररुचि के सूत्र नं 1.35 के अनुसार कैलाश का केलास ( ऐ = ए ) सूत्र 36 के अनुसार भैरव का भइरव ( ऐ = अइ) होता है परन्तु इन दोनों शब्दों के लिए हेमचन्द्र के अनुसार ये परिवर्तन वैकल्पिक बतलाये गये हैं और के लास तथा भेरव शब्दों के प्रयोग भी मान्य रखे हैं । इसी प्रकार वइर ( वैर ) चइत्त (चैत्र) के बदले में वैकल्पिक वेर और चेत्त भी होते हैं जो वररुचि के सूत्रों के अनुसार निषिद्ध से लगते हैं जबकि हेमचन्द्र का इन वैकल्पिक परिवर्तनों के लिए स्पष्ट सूत्र है -- 'वैरादौ वा' 8.1.152 अर्थात् ऐ का ए और अइ दोनों में परिवर्तन होता है । पिशल द्वारा दिये गये उदाहरण भी हेमचन्द्र की पुष्टि करते हैं— कइलास, वेर (सेतुबन्धम् ), चेत्त ( कर्पूरमञ्जरी) । प्राकृत प्रकाश के अनुसार ( I. 17 ) सिंह शब्द में इ का ई (सीह ) होता है । परन्तु हेमचन्द्र का कहना है कि कभी - कभी सिंह भी चलता है (बहुलाधिकारात् क्वचित् न भवति 8. 1. 92 ) और सिंह शब्द के प्रयोग गाथासप्तशती, सेतुबन्धम्, शाकुन्तलम् गौडवहो इत्यादि में भी मिलते हैं (पिशल ) ।
प्राकृत भाषा की एक मुख्य प्रवृत्ति यह रही है कि संयुक्त व्यंजन के पूर्व में आने वाले दीर्घ स्वर को ह्रस्व में बदल दिया जाता है । इस नियम का वररुचि के प्राकृत प्रकाश में उल्लेख ही नहीं है जबकि हेमचन्द्र ने इसके लिए एक अलग ही सूत्र ( ह्रस्वः संयोगे 8.1.84 ) दिया है । चण्ड के प्राकृतलक्षणम् 2.6 ( ह्रस्वत्वं संयोगे ) में भी ऐसा ही सूत्र है ।
प्राकृत प्रकाश के परिच्छेद नं० 11 में मागधी भाषा के एक मुख्य लक्षण र = ल का सूत्र ही नहीं मिलता है जबकि हेमचन्द्र के व्याकरण में इसका स्पष्ट उल्लेख है ( 8.4.288 रसोलेशौ ) । हाँ, इतना अवश्य है कि इस अध्याय में अन्य सूत्रों को समझाते समय जो उदाहरण भामह की वृत्ति में हैं उनमें अनेक शब्दों में र के स्थान पर ल मिलता है | अतः हो सकता है कि र=ल का सूत्र ही लुप्त हो गया हो ।
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